महत्वपूर्ण प्रश्न जो हमारे सामने पीपल्स कमिशन ऑन पब्लिक सेक्टर एंड पब्लिक सर्विसेस (सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक सेवाओं पर जन आयोग) द्वारा प्रकाशित “भारतीय संविधान के लिए निजीकरण एक प्रत्यक्ष अपमान” इस रिपोर्ट से उभरते हैं

लोक राज संगठन की उपाध्यक्षा डॉ. संजीवनी जैन द्वारा

सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक सेवाओं पर जन आयोग, जिसमें बड़ी संख्या में जन-हितैषी व्यक्ति शामिल हैं, उसने नवंबर 2021 में “निजीकरण भारतीय संविधान का एक प्रत्यक्ष अपमान” इस शीर्षक से एक दिलचस्प रिपोर्ट अंग्रेजी में निकाली है। हमारे लेख के पहले भाग में रिपोर्ट के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है। दूसरे भाग में लेखिका कई प्रश्न और चुनौतियाँ उठाती है, जो इस रिपोर्ट के साथ-साथ निजीकरण के खिलाफ आंदोलन तथा विभिन्न जन आंदलनों के अनुभवों ने हमारे सामने उपस्थित किये हैं और जिन पर विचार करने और चर्चा करने की आवश्यकता है।

सार्वजनिक क्षेत्र और सार्वजनिक सेवाओं पर जन आयोग द्वारा नवंबर 2021 में एक दिलचस्प रिपोर्ट लाने के लिए सराहना की जानी चाहिए। इस रिपोर्ट का शीर्षक है “निजीकरण यह भारतीय संविधान का एक प्रत्यक्ष अपमान”। विभिन्न क्षेत्रों से बड़ी संख्या में जन-हितैषी व्यक्ति (साथ के चित्र देखें) – प्रख्यात शिक्षाविदों, न्यायविदों, पूर्व प्रशासकों, ट्रेड यूनियन नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आयोग का गठन किया, जिसमें सह-अध्यक्ष के रूप में शामिल हैं डॉ. थॉमस इसाक, पूर्व वित्त मंत्री, केरल और श्री ई.ए.एस. शर्मा, पूर्व सचिव, विद्युत और आर्थिक मामलों के मंत्रालय, भारत सरकार। प्रकाशित रिपोर्ट एक अंतरिम रिपोर्ट-1 है, जो निजीकरण अभियान के संवैधानिक पहलुओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करती है।

जैसा कि आयोग के सह-अध्यक्ष, डॉ.थॉमस इसाक और श्री ई.ए.एस. शर्मा द्वारा प्राक्कथन में उल्लेख किया गया है, “जन आयोग की इस प्रारंभिक प्रारंभिक रिपोर्ट में तर्कों का सार यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण के लिए केंद्र सरकार की वर्तमान नीति संविधान के उन सामाजिक उद्देश्यों की उपेक्षा के समान है जिन्हें संविधान के निदेशक सिद्धांतों और सकारात्मक कार्रवाई पर संवैधानिक गारंटी में नमूद किया गया है।”

प्रस्तावना एक महत्वपूर्ण बिंदु भी सामने लाती है कि बॉम्बे प्लान (1944) व्यावसायिक हितों के प्रतिनिधियों द्वारा तैयार किया गया था। इसका निश्चित रूप से मतलब है कि यह बड़े भारतीय व्यापारिक घरानों के हितों के अनुरूप था। इसीलिए सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना हुई – सरकार द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के रूप में बड़े पैमाने पर लोगों से इकट्ठा किए गए धन का उपयोग अनगिनत श्रमिकों के श्रम के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को स्थापित करने के लिए किया गया था। यह इरादा था कि ये इकाइयाँ बुनियादी ढांचे की स्थापना करेंगे और ऐसे मूलभूत उद्योगों की स्थापना की जाएगी जिन्हें स्थापित करने के लिए लंबे समय की तथा भरी निवेश की ज़रुरत होती है। यह भी रिपोर्ट में लिखा है योजना में यह भी था कि राज्य विकास की आयात प्रतिस्थापन रणनीति के लिए एक पर्याप्त नियामक ढांचा स्थापित करेगा।

उल्लेखित एक दिलचस्प बात यह है कि “वास्तव में, बॉम्बे प्लान में सार्वजनिक क्षेत्र या योजना के चिरकालीन विकास की परिकल्पना नहीं की गई थी। जैसे-जैसे कॉरपोरेट परिपक्व होते गए और अनुभव प्राप्त किया, सार्वजनिक क्षेत्र को अंततः उन्हें स्थानांतरित कर देना था, या दूसरे शब्दों में उनका निजीकरण कर देना था।”

छोटे उद्यमों को नष्ट करने और देश के धन को भारतीय और विदेशी अमीर कॉरपोरेट घरानों, को औने-पौने दामों पर सौंपने के इरादे से निजीकरण अभियान हाल ही में जिस निर्लज्ज तरीके से चलाया जा रहा है, उसका वर्णन श्री एम.जी. देवसहयम, अध्यक्ष, समन्वय समिति, सार्वजनिक क्षेत्र और लोक सेवाओं पर जन आयोगद्वारा प्रस्तावना में किया गया है।

रिपोर्ट इस बात का दस्तावेजीकरण करती है कि कैसे सरकार द्वारा महामारी की अवधि का उपयोग इजारेदारों को और अधिक समृद्ध करने के लिए किया गया है, जिससे मेहनतकशों के जीवन में अधिक तबाही हुई है। “2020-2021 में मुकेश अंबानी की कुल संपत्ति रु. 7.18 लाख करोड़ और गौतम अडानी की कुल संपत्ति रु. 5.06 लाख करोड़ थी। अन्य अति अमीरों ने भी एक साल के भीतर अपनी संपत्ति में 75 से 85 प्रतिशत की वृद्धि की है। इसके अलावा, रिपोर्ट में कुछ विस्तार से बताया गया है कि कैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कीमत पर निजी टीकों के निर्माताओं को बढ़ावा देने की सरकार की नीति ने लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया है, जिससे अनावश्यक मौतें और तबाही हुई है। इस पर प्रकाश डाला गया है कि हालांकि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की अन्य प्रयोगशालाओं में किए गए काम पर कोवैक्सिन आधारित था, लेकिन उस से निजी क्षेत्र की भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड द्वारा मुनाफा कमाया गया।

रिपोर्ट भारतीय रेलवे, बैंक, एयर इंडिया आदि जैसे अन्य के बारे में भी बात रखता है। वह बताता है कि राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (NMP) किस तरह से लोगों को लूट कर, सार्वजनिक संपत्ति को सबसे अमीर इजारेदारों के हाथों में सौंपकर, धन का अधिक केंद्रिकरण करेगा।

आयोग ने यही निष्कर्ष निकाले हैं कि जहां विनिवेश से निजी इजारेदारों को बेशुमार फायदा होगा क्योंकि उनके हाथों में सहजता से मूल्यवान मशीनरी, प्रशिक्षित श्रमिक, अनमोल भूमि और नैसर्गिक संसाधन आएंगे, वहीँ अंतिम विश्लेषण में नुकसान होगा बड़े पैमाने पर आम जनता को और विशेष रूप से सरकारी खजाने को।

इस प्रकार, रिपोर्ट से स्पष्ट होता है की निजीकरण आम जनता के लिए बहुत ही हानिकारक है। यह बिल्कुल भी अप्रत्याशित नहीं है – करोड़ों लोगों के जीवन का अनुभव – सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में काम करने वालों का और साथ ही उपयोगकर्ता का अनुभव यही दर्शाते हैं। रिपोर्ट आगे दिखाता है कि संविधान में निदेशक सिद्धांतों के माध्यम से उल्लिखित सभी सुन्दर उद्देश्यों का निजीकरण नीति द्वारा उल्लंघन किया गया है। असमानता बढ़ गई है, काम करने की स्थिति भयानक हो गई है, एकाधिकार बहुत बढ़ गया है और लोगों का पैसा पूंजीपतियों के हाथों में तेजी से इकठ्ठा हो रहा है। संक्षेप में कहे तो, घाटे का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है और मुनाफे का निजीकरण कर दिया गया है।

रिपोर्ट से उत्पन्न होने वाले महत्वपूर्ण प्रश्न:
रिपोर्ट में ऐसे उदाहरणों का हवाला दिया गया है जहां सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय ) ने जन-समर्थक फैसले दिए हैं।
इस से मूलभूत प्रश्न उठते हैं जिनका उत्तर देना आवश्यक है:
• कितने लोग सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने कितने जन-समर्थक फैसले दिए हैं?
• सर्वोच्च न्यायालय के पास अपने निर्णयों को लागू करने की कार्यकारी शक्तियाँ नहीं हैं।
• जब न्यायाधीशों को कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किया जाता है, तो वे लोगों के प्रति कैसे जवाबदेह होंगे?

रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि संविधान के भाग IV के अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि भाग IV में निहित प्रावधान किसी भी अदालत द्वारा लागू नहीं किए जा सकते हैं, लेकिन इसमें निर्धारित सिद्धांत देश के शासन के मौलिक सिद्धांत हैं और यह राज्य का कर्तव्य होगा कि कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू किया जाये।”

और आगे, “हमारा संविधान इस मायने में अद्वितीय है कि इसमें लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की नीतिगत दिशाएँ निहित हैं। इसके अलावा, कानून और नीतियां बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करने के लिए राज्य पर एक कर्तव्य डाला गया है। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि लोगों कि प्रगति और कल्याण के लिए एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करने के इस दायित्व और कर्तव्य से राज्य मुकर गया है।”

रिपोर्ट दर्शाती है कि कैसे “संपूर्ण विनिवेश प्रक्रिया की मूलभूत दुर्बलता के असंवैधानिक होने के अलावा, ऐसे कानून हैं जिनका वर्तमान में पालन की जा रही विनिवेश की प्रक्रिया में उल्लंघन होता है।” राज्य द्वारा उल्लंघन किए जा रहे कानूनों में तत्कालीन भूमि अधिग्रहण कानून, पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (PESA) , और वन अधिकार अधिनियम कानून शामिल हैं।

इस से भी कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं:
• संविधान के निदेशक सिद्धांतों को व्यवहार में लागू किया जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए कोई तंत्र क्यों नहीं है?
• जब कार्यपालिका उनका उल्लंघन करती है, (जैसा कि वह वर्षों से बार-बार करती आ रही है, चाहे वह सत्ता में किसी भी दल की हो) इसे जवाबदेही ठहराने और अनुकरणीय दंड देने के लिए कोई तंत्र क्यों नहीं है?

रिपोर्ट से एक दिलचस्प बात सामने आई है कि कैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम खुद मजदूर विरोधी कार्रवाई कर रहे हैं। “इसके अलावा, जब कोई सार्वजनिक उपक्रम अपनी सेवाओं को आउटसोर्स करता है – उदाहरण के लिए, भारतीय रेलवे द्वारा खानपान सेवाएं का आउटसोर्सिंग – इन गतिविधियों का हस्तांतरण ठेकेदार को किसी भी कानूनी प्रतिबद्धता के लिए बाध्य नहीं करता है, जिसके लिए रेलवे एक इकाई के रूप में प्रतिबद्ध है। उदाहरण के लिए, 2018 में रेलवे में 13.11 लाख कर्मचारी थे (जनवरी 2018 में लोकसभा में सरकार द्वारा दिए गए जवाब के अनुसार)। हालांकि, पिछले पांच वर्षों में रेलवे ने अनुबंध की शर्तों पर 7.5 लाख श्रमिकों को रखा था।“

यह हमें उसी मुद्दे पर लाता है:
• कार्यपालिका किसके प्रति जवाबदेह है?
• सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का नेतृत्व करने वाले नौकरशाह निश्चित रूप से लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं। उनका उस समय की सरकार की धुन पर नाचने में निहित स्वार्थ है; सरकार मतदाताओं के प्रति जवाबदेह नहीं है | हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि बड़े कॉरपोरेट्स जिस पार्टी या पार्टियों के नेताओं को बेशुमार धन देते हैं वहीँ तो सत्ता में आते हैं ।

संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि रिपोर्ट यह विस्तार से बताने का अच्छा काम करती है कि कैसे विभिन्न दलों की सरकारों ने हमारे देश के हम सभी लोगों की कीमत पर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए काम किया है। उसने महत्वपूर्ण प्रश्न भी उठाए हैं जिन पर विचार करने, बहस करने और आगे का रास्ता तय करने के लिए चर्चा करने की आवश्यकता है।

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