श्री गिरीश भावे, संयुक्त सचिव, कामगार एकता समिति (KEC) द्वारा
यह लेख ऑल इंडिया रेलवे ट्रैकमेनटेनर्स यूनियन (AIRTU) के कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई जानकारी पर आधारित है।
कई अलग-अलग श्रेणियों के मज़दूरों द्वारा किए गए सहयोगात्मक परिश्रम के बिना रेलवे चलाना संभव नहीं है। हमने पिछले लेखों में देखा है कि स्टेशन मास्टर और लोको पायलट (इंजन ड्राइवर) को कितनी मेहनत करनी पड़ती है। उनकी परेशानी को और बढ़ाने के लिए बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं। वे नियमित रूप से तनावग्रस्त और अधिक काम करते हैं और परिणामस्वरूप उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। यह भारतीय रेलवे (IR) में काम करने वाले कर्मचारियों की व्यावहारिक रूप से हर श्रेणी के लिए सच है और ट्रेन से यात्रा करने वाले सभी लोगों की सुरक्षा को बुरी तरह प्रभावित करता है।
ट्रैक मेंटेनर्स (या ट्रैकमैन) का मामला और भी चौंकाने वाला है। 6 साल पहले प्रकाशित लवासा कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, हर महीने लगभग 40 ट्रैकमैन ड्यूटी के दौरान कुचलकर मारे जाते हैं। अतः हर साल लगभग 500 ट्रैकमैन मारे जाते हैं! हम निश्चित रूप से इन्हें “दुर्घटनायें” नहीं कह सकते, क्योंकि इन्हें रोका जा सकता है। लेकिन भारतीय रेल सोचता है कि इन कर्मचारियों का बलिदान कुछ बड़ी बात नहीं है!
हालांकि ट्रैकमैन की वास्तविक स्वीकृत संख्या 5 लाख है, वर्तमान में केवल 3 लाख पद ही भरे गए हैं। इसमें से करीब 2 लाख ही ट्रैक मेंटेनेंस का काम करते हैं, जबकि करीब एक लाख का अधिकारियों की मर्जी के मुताबिक ऑफिस के कामों और घरेलु ड्यूटी के लिए इस्तेमाल किया जाता है! जिसका मतलब है कि ट्रैकमैन का एक सामान्य गैंग जिसमें 50 ट्रैकमैन शामिल होने चाहिए थे, वास्तव में काम करने के लिए उस में केवल 20 ही हैं। यह स्पष्ट रूप से उन पर भारी दबाव डालता है और ट्रेनों की सुरक्षा को प्रभावित करता है।
इसके साथ ही, रेलवे अब ट्रैक मेन्टेनेरों के वर्तमान कार्यबल को कम कर रहा है और अनुबंध के आधार पर उसने निजी मज़दूरों को तैनात करना शुरू कर दिया है। काम की गुणवत्ता और सुरक्षा पर इसका बुरा असर होता है क्योंकि ये मज़दूर ठीक से प्रशिक्षित नहीं होते हैं। इन ठेका मज़दूरों को 7500 प्रति माह रुपये का दयनीय वेतन दिया जाता है। उन्हें DA और अन्य लाभों से वंचित किया जाता है। कई मामलों में, ठेकेदार अपने द्वारा नियोजित मज़दूरों की एक निश्चित संख्या को “दिखाता है” और उनके वेतन को जेब में रखता है, जबकि उन्हें जो काम करना होता है वह नियमित ट्रैक मेंटेनर्स के कंधों पर डाला जाता है।
ट्रैक मेंटेनरों के लिए प्रमोशन लगभग असंभव है और यह उनकी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। उन्हें कुछ अंतर-विभागीय स्थानांतरण परीक्षाओं में बैठने की अनुमति नहीं है। भारतीय रेल ने स्थायी मार्ग पर्यवेक्षकों के 30,000 पदों को हटा दिया है, जिससे पदोन्नति के अवसरों में और कमी आई है।
स्वास्थ्य और दीर्घायु को प्रभावित करने वाले ट्रैकमैन की कठोर कार्य स्थितियाँ:
• काम के घंटे अपरिभाषित हैं। सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक 9 घंटे काम करने के बावजूद, अधिकारी केवल आधे दिन के लिए अनुपस्थित या उपस्थित के रूप में उनकी हाजिरी कर सकते हैं।
• काम की जगह तय नहीं होती है और उन्हें हर सुबह ड्यूटी दी जाती है। काम की जगह तक पहुंचना आसान नहीं होता है – कार्य स्थल पर पहुचने के लिए कोई वाहन नहीं होता है।
• ट्रैक मेंटेनरों को अपने कंधों पर 40-50 किलो के औजारों को ले जाना पड़ता है और सेक्शन के बीच में 8 किमी तक की दूरी तय करनी पड़ती है। इस दुर्गम पद-यात्रा और घंटों की कड़ी मेहनत के परिणामस्वरूप एकाग्रता में कमी आती है, जिससे ट्रैक मेंटेनरों और यात्रियों की सुरक्षा गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
• पूरी तरह से अनुचित और अवास्तविक लक्ष्य जो मज़दूरों पर जबरदस्त शारीरिक और मानसिक दबाव डालते हैं।
• रात्रि गश्त के लिए एक ट्रैक मैंटेनर को हर तरह के मौसम में 20 किमी पैदल चलना पड़ता है। इससे जहरीले कीड़ों या सांपों द्वारा काटे जाने या जंगली जानवरों द्वारा हमला किए जाने का अतिरिक्त खतरा होता है।
• असंख्य ट्रैक मैंटेनरों की जान बचाई जा सकती है यदि दो लोगों को एक साथ भेजा जाता है या सुरक्षा उपकरण प्रदान किए जाते हैं जो उन्हें आने वाली ट्रेनों की चेतावनी देते हैं, लेकिन ऐसा नहीं किया जाता है। यह उन कीमेन पर भी लागू होता है जिनके पास 5 किमी से 10 किमी तक की पटरियों का निरीक्षण करने का कठिन कार्य होता है।
• वेतन यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि उन्हें वह पौष्टिक भोजन मिले जो उनके द्वारा किए जाने वाले भारी काम के लिए आवश्यक है।
• कभी-कभी उन्हें पटरियों को बनाए रखने की प्रक्रिया में मानव मल से दूषित गंदे पानी से गुजरना पड़ता है। उन्हें अपेक्षित सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं और वे संक्रामक रोगों से बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें रोग भत्ता भी नहीं मिलता है।
• चाहे 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाली भीषण गर्मी हो या कड़ाके की ठंड या भारी बारिश, उनके पास अपना दोपहर का भोजन पटरियों के बगल में खुली हवा में खाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उनके लिए पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है।
• 8,000 महिला ट्रैक मैंन्टेनरों की स्थिति और भी खराब है; न तो स्टेशनों पर और न ही कार्यस्थलों पर उनके लिए अलग विश्राम कक्ष और नहाने या कपडे बदलने का कक्ष हैं।
रात के काम की विशिष्ट समस्याएं:
• शरीर के चक्र को बदलता है, जिसके परिणामस्वरूप अपच, गैस्ट्रिक समस्याएं आदि होती हैं
• सोने का अभाव
• सिर्फ पानी के अलावा कोई जलपान नहीं दिया जाता है
• कभी-कभी, दिन के मज़दूरों को शाम 4:00 बजे कार्यमुक्त कर दिया जाता है और फिर उन्हें दूसरी पाली के लिए रात 10:00 बजे फिर से हाजिर होने के लिए कहा जाता है! यात्रा के समय को ध्यान में रखते हुए, उन्हें दो पालियों के बीच छह घंटे का आराम भी नहीं मिलता है।
• यदि कार्य 8 घंटे से अधिक हो जाता है तो कोई ओवरटाइम भुगतान नहीं दिया जाता है। दरअसल, रात के भत्ते को 152 रुपये से घटाकर 118 रुपये कर दिया गया है।
अधिकारियों द्वारा नियमों का घोर उल्लंघन।
रेलवे बोर्ड के 5 फरवरी 2018 के परिपत्र के अनुसार, ट्रैक मैंटेनरों को हर छह महीने में सेफ्टी शूज, साल में एक बार रेनकोट और हर दो साल में एक बार सर्दियों के कपड़े दिए जाने चाहिए। उन्हें रक्षक या सुरक्षा उपकरण दिए जाने चाहिए जो उन्हें आने वाली ट्रेनों आदि के लिए सचेत करते हैं। सभी सुरक्षा गियर और उपकरण रेलवे द्वारा निर्धारित मानक गुणवत्ता के होने चाहिए।
जमीनी हकीकत बहुत अलग है। उन्हें या तो इनमें से कोई भी प्रदान नहीं किया जाता है, या यदि दिया जाता है तो गुणवत्ता बहुत खराब होती है:
• कई जगहों पर 4 साल से जूते नहीं दिए गए हैं!
• दस्तानों की गुणवत्ता खराब होती है और वे बहुत जल्दी खराब हो जाते हैं। अक्सर वे पहनने या उपयोग करने के लिए बहुत तंग होते हैं।
• कई वर्षों से कोई सुरक्षा चश्मा उपलब्ध नहीं कराया गया है।
• उन्हें कोई मेडिकल किट उपलब्ध नहीं कराई जाती है।
ऑल इंडिया रेलवे ट्रैक मैंटेनर्स यूनियन इन मुद्दों को अधिकारियों के सामने उठाती रही है, लेकिन उन्होंने उनका समाधान करने के लिए कुछ नहीं किया गया है।