अशोक कुमार, संयुक्त सचिव, कामगार एकता कमिटी (KEC) द्वारा
बिजली मंत्रालय ने बताया है कि 2020-21 के दौरान, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने सब्सिडी वाली बिजली उपलब्ध कराने पर कुल 1.32 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। केंद्र सरकार और पूंजीवादी मीडिया हाल ही में मुफ्त या सब्सिडी वाली बिजली प्रदान करने का “मुफ्तखोरी” के रूप में उल्लेख कर रहे हैं और चाहते हैं कि राज्य सरकारें इसे रोकें।
बिजली (संशोधन) विधेयक 2022 चाहता है कि बिजली की दर “लागत प्रतिबिंबित” हो, जिसका अर्थ है कि बिजली की दर उपभोक्ता तक बिजली पहुंचने में होने वाली सभी लागतों और उत्पादन कंपनी को सुनिश्चित किए गए 16% के लाभ को कवर करे। यानी, किसी के लिए सब्सिडी वाली बिजली नहीं होनी चाहिए।
सब्सिडी वाली बिजली का प्रावधान करोड़ों किसानों को लाभान्वित करता है और खाद्यान्न और अन्य फसलों के उत्पादन की लागत को कम करने में मदद करता है और इस प्रकार किसानों सहित देश की पूरी आबादी को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ होता है। सरकार इस सब्सिडी का भुगतान लोगों के पैसे से ही करती है, जो हम सरकार को करों के माध्यम से देते है।
यदि यह खर्च “मुफ्तखोरी” है और इसे रोका जाना चाहिए तो कुछ लाख पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए हर साल दिए जाने वाले निम्नलिखित को भी “मुफ्तखोरी” क्यों नहीं कहा जाता है और बंद कर दिया जाता है?
• कॉरपोरेट करों में लगभग 1 लाख करोड़ रुपये की रियायतें
• वस्तुओं के आयात पर शुल्क में करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये की छूट
• निर्यातकों को करीब 0.7 लाख करोड़ रुपये की रियायत
2019-2020 में घोषित कॉरपोरेट टैक्स की दर में कमी को “मुफ्तखोरी” क्यों नहीं कहा जाना चाहिए और इसे उलट क्यों नहीं किया जाना चाहिए जब यह बड़े पूंजीपतियों को साल-दर-साल दसियों हज़ार करोड़ अतिरिक्त लाभ देने के बराबर है? कॉरपोरेट टैक्स की दर में इस कमी के साथ, जहां एक वेतनभोगी 10 लाख रुपये से अधिक की वार्षिक आय पर 30% की दर से आयकर का भुगतान करता है, वहीं हजारों करोड़ का लाभ कमाने वाला कॉर्पोरेट केवल 25% की दर से कर का भुगतान करता है!!
“उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन” योजना पर खर्च किए जा रहे लगभग 2 लाख करोड़ रुपये को “मुफ्तखोरी” क्यों नहीं कहा जाना चाहिए और रोक दिया जाना चाहिए? पूंजीपतियों को अधिक उत्पादन और अधिक लाभ कमाने के लिए प्रोत्साहन क्यों दिया जाना चाहिए?
पूंजीपतियों को दी जाने वाली रियायतें और प्रोत्साहन यह दावा करते हुए न्यायोचित बतायी जाती हैं कि इससे और अधिक रोजगार पैदा होंगे और इस प्रकार लोगों को लाभ होगा। हकीकत इसके विपरीत है। पूंजीपति लगातार एक तिहाई या एक चौथाई वेतन पर ठेका श्रमिकों को स्थायी नौकरियों की जगह बड़ी संख्या में ले रहे हैं।
लगभग 6 लाख करोड़ रुपये के एनपीए, मुख्य रूप से बड़े पूंजीपतियों के, जिन्हें पिछले कुछ वर्षों के दौरान बट्टे खाते में डाल दिया गया है, को “मुफ्तखोरी” क्यों नहीं कहा जाना चाहिए? बैंकों से जनता का पैसा लूटने के लिए उन्हें दंडित क्यों नहीं किया जाना चाहिए? हालांकि, जब किसान एमएसपी की गारंटी के अभाव में अपनी फसल को उत्पादन की लागत से कम पर बेचने के लिए मजबूर होने के कारण अपने ऋण को बट्टे खाते में डालने की मांग करते हैं, तो इसे “मुफ्तखोरी” की मांग कहा जाता है।
उपरोक्त सभी बातों से पता चलता है कि वर्तमान व्यवस्था और सरकार बड़े कॉरपोरेट्स के मालिक और पूंजीपतियों के लिए काम करती है। श्रमिकों, किसानों और अन्य मेहनतकशों को दी जाने वाली कोई भी मदद पूंजीपतियों और सरकार में उनके सेवकों द्वारा पैसे की बर्बादी कहलाती है; वे इसे एक “मुफ्तखोरी” कहते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि इसे रोका जाना चाहिए, लेकिन उसी समय वे पूंजीपतियों को दी गई सभी मदद को समाज के लिए अच्छा होने का दावा करके सही ठहराते है। इस तर्क चुनौती देने का समय आ गया है!
इस पूंजीवादी दृष्टिकोण को चुनौती देने का समय आ गया है जहां हर गतिविधि की दक्षता का मूल्यांकन उसकी लाभप्रदता के आधार पर किया जाता है और यह जोर दिया जाता है कि हर गतिविधि को लाभ का स्रोत बनाया जाना चाहिए। बिजली आज भोजन और पानी की तरह जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। हमें मांग करनी होगी कि सरकार इसे देश में हर जगह हर किसी के लिए सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए। बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकता को चंद लोगों के लाभ का जरिया नहीं बनने दिया जा सकता! लेकिन, बिजली (संशोधन) विधेयक 2022 का लक्ष्य यही है – दक्षता में सुधार के नाम पर करोड़ों मेहनतकशों की कीमत पर कुछ लोगों के लिए बिजली वितरण को लाभ का एक और स्रोत बनाना। इसलिए उपभोक्ताओं को बिल का विरोध करने के लिए बिजली क्षेत्र के क र्मचारियों के साथ जुड़ने की जरूरत है।