शहर के परिवहन के निजीकरण का एक और तरीका

कामगार एकता कमिटी (KEC) संवाददाता की रिपोर्ट


केंद्र सरकार पिछले कुछ सालों से बड़े शहरों में सिटी ट्रांसपोर्ट के लिए प्रदूषण कम करनेवाली डीजल ईंधन का इस्तेमाल करने वाली बसों की जगह इलेक्ट्रिक बसों (ई-बसों) के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही है। उसने 64 शहरों में 5,450 ई-बसों के लिए निविदा जारी की है। ई-बस की औसत कीमत 1.5 करोड़ रुपये से 2 करोड़ रुपये है, इसलिए निविदा का कुल मूल्य 7,700 करोड़ रुपये से 10,500 करोड़ रुपये के बीच होगा। टाटा मोटर्स जैसे ई-बस उत्पादक निश्चित रूप से प्रदूषण कम करने के नाम पर इस नए व्यावसायिक अवसर को लेकर बहुत उत्साहित हैं। टाटा मोटर्स को पहले ही 3,600 ई-बसों का ऑर्डर मिल चुका है।

लेकिन बसें सरकारी उपक्रमों द्वारा नहीं खरीदी जा रही हैं। इस बड़े ऑर्डर के लिए एक नया मॉडल प्रस्तावित किया गया है जिसके तहत बसों का स्वामित्व, संचालन और प्रबंधन 12 साल तक बस आपूर्तिकर्ता द्वारा किया जाएगा। यह और कुछ नहीं बल्कि शहर के परिवहन का निजीकरण है। ई-बसों की ऊंची लागत और ई-बसों में नई

तकनीक के इस्तेमाल को शहर के परिवहन के निजीकरण के इस नए मॉडल को बढ़ावा देने के बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

जैसे जैसे सभी डीजल बसों को ई-बसों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा, देश के सभी प्रमुख शहरों में पूरे शहर परिवहन का निजीकरण हो जाएगा। राज्य सरकार द्वारा संचालित परिवहन उपक्रमों द्वारा नियोजित लाखों चालक, कंडक्टर और कार्यशाला मैकेनिक बेरोजगार हो जाएंगे।

कई शहरी परिवहन संस्थानों पहले ही निजी कंपनियों द्वारा बसों के संचालन और रखरखाव का सहारा ले चुके हैं।

प्रस्तावित नए मॉडल से सरकार किफायती शहरी परिवहन प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से पीछे हट जाएगी। इन सरकारी स्वामित्व वाले उपक्रमों में कार्यरत लाखों श्रमिकों को बुरी तरह प्रभावित करने के अलावा, यह उन करोड़ों कामकाजी लोगों को भी प्रभावित करेगा जो अपने कार्यस्थल पर आने और जाने के लिए दैनिक बस सेवा का उपयोग करते हैं।

हालांकि शहरों में प्रदूषण को कम करने के लिए ई-बसों को अपनाया जाना चाहिए, लेकिन शहर के परिवहन, जो शहरों में कामकाजी लोगों के लिए एक आवश्यक सेवा है, उसके निजीकरण कोई औचित्य नहीं है।

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