5 फरवरी को नई दिल्ली में निजीकरण पर मज़दूर एकता कमेटी (एम.ई.सी.) द्वारा आयोजित परिचर्चा की मज़दूर एकता लहर (एम.ई.एल.) संवाददाता की रिपोर्ट
सभा के कमरे की दीवारों को बैनरों से सजाया गया था। बैनरों पर लिखें नारे थे – ”निजीकरण के साथ समझौता नहीं!“, “देश की दौलत पैदा करने वालों को देश का मालिक बनना होगा!”, “मज़दूर किसान का है यह नारा, सारा हिन्दोस्तान है हमारा!”, “दुनिया के मज़दूरों एक हो!”
ट्रेड यूनियनों, मज़दूर संगठनों, किसान संगठनों, मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ता तथा महिलायें और नौजवान बड़ी संख्या में शामिल हुये और सक्रिय रूप से चर्चा में भाग लिया।
मीटिंग का संचालन एम.ई.सी. के संतोष कुमार ने किया। उन्होंने इस ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा करने के लिए बैठक में हिस्सा ले रहे सभी लोगों का स्वागत किया। उन्होंने बताया कि सार्वजनिक संपत्तियों और सेवाओं के निजीकरण के खि़लाफ़ पूरे देश में एक बड़ा संघर्ष चल रहा है। निजीकरण के खि़लाफ़ संघर्ष में हम सभी कार्यकर्ताओं को ट्रेड यूनियनों और राजनीतिक पार्टियों की संबद्धताओं को छोड़कर एकजुट होते देख रहे हैं। उन्होंने बताया कि इस बैठक का उद्देश्य सभी वर्गों के कार्यकर्ताओं को एक सांझा मंच पर लाना है ताकि इस बात पर चर्चा की जा सके कि संघर्ष को कैसे आगे बढ़ाया जाए। इसके बाद उन्होंने एम.ई.सी. के बिरजू नायक को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए बुलाया।
बिरजू नायक ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इस देश के प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ हम लोगों के श्रम से बनाई गई संपत्ति पर हम सभी की मालिकी है। इसलिये लोगों को वंचित करते हुए, पूंजीपतियों को खुद को समृद्ध करने के लिए इनका दोहन करने की अनुमति हम नहीं दे सकते।
उन्होंने 23 साल पहले मॉडर्न फूड्स इंडिया लिमिटेड (एम.एफ.आई.एल.) के निजीकरण के खि़लाफ़ एम.ई.सी. के नेतृत्व में हुये बहादुर संघर्ष को याद किया। यह संघर्ष किया गया था, केंद्र सरकार की मालिकी वाली एम.एफ.आई.एल. को बहुराष्ट्रीय निजी कंपनी, हिन्दोस्तान लीवर लिमिटेड (एच.एल.एल.), को बेचे जाने के खि़लाफ़। वाजपेयी की एन.डी.ए. सरकार ने उस समय एम.एफ.आई.एल. और बाल्को (भारत एल्युमीनियम कंपनी) को बेचने के अपने फ़ैसले की घोषणा की थी। उन्होंने समझाया कि वह संघर्ष बहुत कठिन परिस्थितियों में किया गया था, क्योंकि उस समय की अधिकांश प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने शासक वर्ग के इस तर्क को कि “निजीकरण का कोई विकल्प नहीं है“ को स्वीकार कर लिया था। ये ट्रेड यूनियनें कर्मचारियों को वी.आर.एस. से मिलने वाला पैसा लेकर नौकरी छोड़ने की सलाह दे रही थीं।
उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे एम.एफ.आई.एल. और बाल्को के मज़दूरों के संघर्ष से मजबूर होकर वाजपेयी सरकार ने अक्तूबर 2002 में प्रधानमंत्री की एक विशेष समिति गठित की। जिसे इन कंपनियों के निजीकरण के परिणामों की जांच करने के लिए बनाया गया था। एम.ई.सी. और एम.एफ.आई.एल. की यूनियन ने इस समिति के सामने अनेक दस्तावेज़ सबूत बतौर पेश किये कि कैसे एच.एल.एल. प्रबंधन संयंत्र और मशीनरी को नष्ट कर रहा था। उप-ठेकेदारी का सहारा ले रहा था, नियमित मज़दूरों के स्थान पर ठेका श्रम का उपयोग कर रहा था और सभी श्रम क़ानूनों का उल्लंघन कर रहा था। उन्होंने स्पष्ट किया कि एच.एल.एल. के प्रबंधन की रुचि केवल मॉडर्न ब्रेड के ब्रांड के नाम में थी और उसकी बहुमूल्य अचल संपत्ति में थी।
जब समिति ने सितंबर 2004 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी, तब एम.एफ.आई.एल. के कर्मचारियों ने यह मांग की कि रिपोर्ट को संसद के समक्ष रखा जाए और उस पर चर्चा की जाए। लेकिन, तब तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार सत्ता में आ चुकी थी और उसने इस मांग को पूरा नहीं किया। इसके बजाय, संप्रग सरकार ने वैसे ही उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निजीकरण का एक अलग रास्ता अपनाया।
बिरजू नायक ने कहा कि निजीकरण के खि़लाफ़ हो रहे संघर्ष ने बार-बार दिखाया है कि सरमायदारों के निजीकरण के एजेंडे के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता, चाहे इसे किसी भी रूप या नाम से लागू किया जा रहा हो।
उन्होंने कहा कि उस समय से अब तक सत्ता में आई हर सरकार ने निजीकरण के एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाया है। रेलवे, बैंकिंग, बीमा, बिजली वितरण, दूरसंचार और यहां तक कि रक्षा उत्पादन जैसे ”रणनीतिक” क्षेत्र, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सामाजिक सेवाओं को वर्षों से निजीकरण के लिए खोल दिया गया है। निजीकरण के खि़लाफ़ मज़दूर वर्ग का संघर्ष भी बढ़ रहा है। मज़दूर ज़ोर देकर कह रहे हैं कि इन सेवाओं को निजी पूंजीपतियों के लिए अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के इरादे के साथ चलाया जा सकता और न ही चलाया जाना चाहिए।
बिरजू नायक ने अनेक उदाहरण देकर बताया कि प्रत्येक सरकार द्वारा लागू की जाने वाली नीतियों और क़ानूनों के पीछे के इरादे, हमेशा से सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के मुनाफ़ों को अधिकतम करने रही है। 1950 से 1970 के दशक में, राज्य की मालिकी वाले भारी उद्योगों, राज्य की मालिकी वाले बैंकों और बीमा कंपनियों के निर्माण और विस्तार की नीति ने औद्योगीकरण के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करने, पूंजीवाद के लिए घरेलू बाज़ार का विस्तार करने और इजारेदार पूंजीपतियों के लिए अधिकतम मुनाफ़े की गारंटी देने का काम किया था। 1980 के दशक के बाद से इजारेदारी मुनाफ़े को अधिकतम बनाने के लिये निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के एजेंडे को लागू किया जा रहा है।
शासक वर्ग इस भ्रम को क़ायम रखता है कि लोग चुनावों के ज़रिये सरकार और उसकी नीतियों का निर्धारण करते हैं। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इजारेदार पूंजीवादी घराने उस राजनीतिक पार्टी या गठबंधन को सत्ता में लाने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करते हैं, जो जनता को सबसे प्रभावी ढंग से मूर्ख बनाते हुए उनके एजेंडे को बेहतर ढंग से लागू कर सकती है। हमारे देश के अधिकांश लोगों के पास फ़ैसले लेने, नीतियों को प्रभावित करने या क़ानून बनाने की ताक़त नहीं है।
मज़दूर वर्ग को निजीकरण के खि़लाफ़ चलाये जा रहे संघर्ष को समाज की विशाल बहुसंख्या की ज़रूरतों पर से निजी पूंजीवादी लालच के वर्चस्व को ख़त्म करने के उद्देश्य से आगे बढ़ाना होगा। मज़दूर वर्ग का कार्यक्रम है एक नए समाज के लिए संघर्ष करना, जिस समाज में मज़दूर, किसान और सभी मेहनतकश निर्णयकर्ता होंगे। उन्होंने अंत में यह निष्कर्ष निकाला कि हमें वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की पूरी व्यवस्था को सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में चलाना होगा न कि पूंजीवादी लालच को पूरा करने की दिशा में।
अगली वक्ता सेवा से लता थीं। उन्होंने उन विभिन्न क्षेत्रों के बारे में बताया जिनमें निजीकरण हो रहा है, इनमें स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी आवश्यक सामाजिक सेवाएं शामिल हैं। उन्होंने बताया कि निजीकरण के कारण मज़दूर बड़ी संख्या में इन आवश्यक सामाजिक सेवाओं से वंचित हो रहे हैं। उन्होंने पूंजीपतियों और यहां तक कि सरकारी विभागों द्वारा ठेका श्रम के बढ़ते उपयोग के कई उदाहरण दिए। उन्होंने देश में कोविड लॉकडाउन के दौरान हुई मानवीय त्रासदी को याद करते हुए ठेका मज़दूरों और प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला।
लता ने चार श्रम संहिताओं की निंदा की और विस्तार से बताया कि इन संहिताओं को जब लागू किया जाएगा तो कार्यस्थल पर सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा के संबंध में मज़दूरों की स्थिति किस तरह से बद से बदतर हो जाएगी। उन्होंने कहा कि बढ़ते निजीकरण के साथ, बढ़ती बेरोज़गारी की समस्या और भी बदतर हो जाएगी।
लता ने कहा कि सांप्रदायिक प्रचार और सांप्रदायिक हिंसा और राजकीय आतंक ऐसे हथियार हैं, जिनका इस्तेमाल करके हमारे शासक मज़दूरों को बांट रहे हैं, हमें डरा रहे हैं और शोषण के खि़लाफ़ किये जा रहे हमारे एकजुट संघर्ष को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने एम.ई.सी. को धन्यवाद दिया और मज़दूरों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करने की ज़रूरत पर बल दिया। उन्होंने निजीकरण के खि़लाफ़ एकजुट और दृढ़ संघर्ष करने का आह्वान किया।
अगले वक्ता के रूप में यू.टी.यू.सी. के नाज़िम हुसैन ने बताया कि कैसे सार्वजनिक उपक्रमों को जानबूझकर लूटा गया, व्यवस्थित रूप से नष्ट किया गया और उनके निजीकरण को सही ठहराने के लिए घाटे में चलाया गया। उन्होंने दूरसंचार, रेलवे और अन्य क्षेत्रों का उदाहरण दिया, जहां ऐसा किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट आंदोलन निजीकरण के खि़लाफ़ मज़दूरों के संघर्ष को एकीकृत नेतृत्व और स्पष्ट दिशा नहीं दे पाया है। उन्होंने एम.ई.सी. को धन्यवाद दिया और बैठक में भाग ले रहे युवाओं से संघर्ष को आगे बढ़ाने की अपील की।
कई सहभागियों ने वक्ताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों पर विस्तार से बताया।
प्रतिभागियों ने “कुशलता“ की पूंजीवादी परिभाषा पर सवाल उठाया, जिसके बहाने बड़ी इजारेदार पूंजीवादी कंपनियां लाखों मज़दूरों को उनकी नौकरी से निकाले जाने को सही ठहरा रही हैं। उन्होंने बताया कि यह केवल पूंजीपतियों की अपनी संपत्ति बढ़ाने में कुशल है, लेकिन यह समाज के लिए पूरी तरह से अकुशल है क्यांकि यह उत्पादक आबादी के एक बड़े वर्ग को बेरोज़गार बनाती है। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि समाज की प्रगति के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्रों, जैसे कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा का निजीकरण किया जा रहा है। निजीकरण की वजह से ये सेवाएं अधिकांश मेहनतकश लोगों की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। यह एक तरफ तो बड़ी आबादी को और अधिक ग़रीबी की ओर ले जा रहा जबकि दूसरी तरफ़ मुट्ठीभर बड़े इजारेदार पूंजीवादी घरानों को शानदार समृद्धि की ओर ले जा रहा है।
चर्चा का समापन करते हुए संतोष कुमार ने ज़ोर देकर कहा कि हमारे संघर्ष का तात्कालिक उद्देश्य निजीकरण के समाज-विरोधी एजेंडे को रोकना है। उन्होंने कहा कि हमें पूंजीवादी लालच को खत्म करने और सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने के लिये संघर्ष को आगे बढ़ाना है।