भारत में लोकोमोटिव (रेलवे इंजन), कोच (रेल डिब्बे) और अन्य रोलिंग स्टॉक, पहियों और एक्सल के साथ-साथ रेलवे द्वारा आवश्यक अन्य सामान बनाने वाली कई उत्पादन इकाइयाँ हैं। ये इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने और रेलवे बोर्ड के नियंत्रण में स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य करने के लिए स्थापित किए गए थे। भारत का रक्षा मंत्रालय भारतीय रेलवे की उत्पादन इकाइयों के महत्वपूर्ण गैर-रेलवे ग्राहकों में से एक है।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद, सभी रोलिंग स्टॉक को संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से उच्च लागत के साथ आयात किया जाना था और आपूर्ति अनुसूची पर कोई नियंत्रण नहीं था। आज ये सात उत्पादन इकाइयाँ भारतीय रेल की आवश्यकता को पूरा करने के लिए 10,000 यात्री डिब्बों और 1000 लोकोमोटिव का उत्पादन कर सकती हैं, और इसकी वजह से भारतीय रेल अब मुख्य रूपसे आत्मनिर्भर है|
“मेक इन इंडिया” के घोषित उद्देश्य के बावजूद, सरकार हाल के वर्षों में उनमें से सात को निगमीकरण के लिए लक्षित कर रही है। निगमीकरण को तो निजीकरण की दिशा में पहला कदम माना जाता है। इसका संबंधित मज़दूरों और उनके परिवारों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है और सरकार को अब तक सफलता नहीं मिली है। यह पहली बार नहीं था कि श्रमिकों और उनके परिवारों ने योजना को विफल कर दिया था; 2006 में सरकार को कपूरथला में कोच फैक्ट्री के निजीकरण के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा था, क्योंकि परिवारों, विशेषकर महिलाओं ने इसके खिलाफ 71 दिनों तक बहुत ज़बरदस्त संघर्ष किया था।
इन उत्पादन इकाइयों ने प्रति इकाई उत्पादन में आवश्यक मज़दूरों की संख्या को कम करके अपनी कार्यक्षमता
साबित की है। वर्ष 2012 से 2018 तक, एक लोकोमोटिव का उत्पादन करने के लिए, चित्तरंजन लोको वर्क्स में आवश्यक औसत जनशक्ति 51 से घटकर 30.5, डीजल लोको वर्क्स, वाराणसी में 22.8 से 19 हो गई है, जबकि एक कोच का उत्पादन करने के लिए औसत जनशक्ति चेन्नई कोच फैक्ट्री में 8.1 से 4.5 और रेल कोच फैक्ट्री, कपूरथला में 3.9 से 3 तक कम हो गई है।
इसने IR (भारतीय रेल) के लिए लागतों को बहुत नियंत्रित किया है। 1995 में, IR ने जर्मनी से LHB कोच शुरू किए, जिसकी औसत लागत प्रति कोच रु. 5.5 करोड़ थी। अब भारत में एक एलएचबी कोच केवल रु. 2 करोड़ में उत्पादित किया जाता है। इसी तरह भारतीय रेलवे भी डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) के लिए 20 करोड़ रुपये की लागत से इंजन खरीदने का प्रस्ताव कर रहा है। लेकिन सीएलडब्ल्यू 12 करोड़ रुपये की लागत से इंजनों की समान क्षमता का उत्पादन कर रहा है!
सरकार की नीति के अनुसार वे डीजल इंजन को बंद करने जा रहे हैं और बिजली का उपयोग कर सभी रेलवे नेटवर्क को जोड़ने जा रहे हैं। यह खर्चों पर अंकुश लगाने के लिए किया जाता है क्योंकि हम दूसरे देशों से ईंधन आयात करते हैं। इसके बावजूद अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी को एक निजी जगह दी गयी और नए डीजल इंजन बनाने की अनुमति दी गई! सरकार ने 22 करोड़ रुपये का एबीबी इंजन खरीदा। जबकि भारत में इसी तरह के इंजनों का निर्माण चित्तरंजन में लगभग केवल रु. 9 करोड़ में होता है। रायबरेली में बनने वाले डिब्बों की कीमत रु. 2 करोड़ है जबकि सरकार उन्हें 6.5 करोड़ रुपये में आयात करती है!
भारतीय रेलवे के पास वर्तमान में 12,500 लोकोमोटिव और 70,000 कोच हैं, जिनकी कुल कीमत रु. 3.1 लाख करोड़ है। भारतीय रेलवे की उत्पादन इकाइयों को निगम बनाने से लोकोमोटिव और कोचों की लागत में वृद्धि होगी।
इसके अलावा इन सात उत्पादन इकाइयों के पास 36 वर्ग किलोमीटर भूमि है। ICF महानगरीय चेन्नई शहर के एक प्रमुख स्थान पर स्थित है, जहाँ भूमि की लागत 10,000 रुपये प्रति वर्ग फुट से अधिक है। इसका मतलब है कि ICF के तहत भूमि की लागत 12,000-13,000 करोड़ रुपये से अधिक है। अगर इसे कॉरपोरेट्स को सौंप दिया जाता है, तो यह 2,500 करोड़ रुपये से कम की कीमत पर होगा ऐसा अनुमान है।
कारखानों के अलावा, इन उत्पादन इकाइयों में कॉलोनियां, अस्पताल, अच्छी खेल सुविधाएं, स्कूल आदि हैं। ये सभी आत्मनिर्भर मिनी-टाउन हैं!
चित्तरंजन लोकोमोटिव वर्क्स (सीएलडब्ल्यू), पश्चिम बंगाल
चित्तरंजन लोकोमोटिव वर्क्स को 1950 में 120 औसत आकार के भाप इंजनों के उत्पादन के लिए लॉन्च किया गया था। इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव का उत्पादन 1961 में शुरू हुआ। डीजल-हाइड्रोलिक इंजनों का उत्पादन 1968 में शुरू हुआ लेकिन बाद में बंद कर दिया गया।
आज यह केवल इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव बनाता है जिसे वह लगातार अपग्रेड कर रहा है। यह अब दुनिया की सबसे बड़ी लोकोमोटिव निर्माता इकाई है, और 2019-20 में उसने 431 लोकोमोटिव का उत्पादन किया। इसकी तुलना 200 की स्थापित क्षमता से करनी होगी!
सीएलडब्ल्यू की कुल संपत्ति 960 करोड़ रुपये से अधिक है, जिसमें टाउनशिप, अस्पताल, वर्कशॉप, मशीनिंग और व्हीलसेट की असेंबली के लिए, फैब्रिकेशन, बोगियों आदि इन-हाउस सुविधाएं शामिल हैं। स्टील फाउंड्री की स्थापना लोकोमोटिव के स्टील कास्टिंग उत्पादों की आपूर्ति के लिए की गई थी। सीएलडब्ल्यू में इन हाउस मशीनिंग और व्हील सेट की असेंबलिंग, तथा बोगियों की फैब्रिकेशन और मशीनिंग होता है। सुविधाओं में आधुनिक सीएनसी मशीन, प्लाज्मा कटिंग मशीन और अक्रिय गैस वेल्डिंग सेट शामिल हैं।
31 मार्च 2020 को CLW का कुल कारोबार रु. 4564.95 करोड़ था।
बनारस लोकोमोटिव वर्क्स (BLW), वाराणसी, उत्तर प्रदेश
1961 में डीजल लोकोमोटिव वर्क्स (DLW) के रूप में स्थापित, BLW ने तीन साल बाद, 3 जनवरी 1964 को अपने पहले लोकोमोटिव का उत्पादन किया। जुलाई 2006 में, DLW ने कुछ इंजनों के निर्माण को परेल वर्कशॉप, सेंट्रल रेलवे, मुंबई को आउटसोर्स किया।
मार्च 2018 में इसने दो पुराने डीजल इंजनों को सफलतापूर्वक इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव में बदल दिया, जो दुनिया में पहली बार किया गया था। यह भारत में सबसे बड़ा डीजल-इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव निर्माता था। DLW ने मार्च 2019 में डीजल इंजनों का निर्माण बंद कर दिया और अक्टूबर 2020 में इसका नाम बदलकर BLW कर दिया गया। मार्च 2020 में, इसने देश का पहला द्वि-मोड लोकोमोटिव, WDAP-5 विकसित किया। बीएलडब्ल्यू आज ज्यादातर विद्युत इंजनों का उत्पादन करता है।
BLW पुराने कोचों का नवीनीकरण करके और उन्हें नए के इतने अच्छे बनाकर बहुत सारा पैसा बचा रहा है।
डीजल-लोको आधुनिकीकरण कारखाना, पटियाला, पंजाब
पहले डीजल कॉम्पोनेन्ट वर्क्स के रूप में यह जाना जाता था| भारतीय रेलवे के डीजल इंजनों के सेवा जीवन का विस्तार करने और उनकी उपलब्धता के स्तर को बढ़ाने के लिए 1981 में डीजल-लोको आधुनिकीकरण कारखाने की स्थापना की गई थी। यह इंजनों को अपग्रेड और ओवरहाल करता है। इसने WAP 7 और WAG 9 इंजनों का निर्माण भी शुरू किया है।
यहाँ निम्नलिखित गतिविधियाँ की जाती हैं:
• पुर्जों के रूप में उच्च गुणवत्ता वाले घटकों और उप-संयोजनों का निर्माण और आपूर्ति।
• अब तक आयातित घटकों का निर्माण और समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करना।
• रेलवे के डीजल लोकोमोटिव के रखरखाव प्रणाली के यूनिट एक्सचेंज सिस्टम के लिए महत्वपूर्ण असेंबलियों का पुनर्निर्माण
• लोकोमोटिव और पावर पैक का पुनर्निर्माण, और नवीनतम तकनीकी विकास को शामिल करने वाली प्रणालियों के साथ इंजनों को लैस करना (retrofitting)
• विद्युत इंजनों का निर्माण।
इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ), पेरंबूर, तमिलनाडु
1948 में, भारत सरकार ने निर्णय लिया कि भारतीय रेलवे के लिए कोचों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की दृष्टि से एक अलग रेलवे कोच बिल्डिंग वर्क्स की स्थापना की जानी चाहिए।
इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (ICF) स्वतंत्र भारत की शुरुआती उत्पादन इकाइयों में से एक है। इसका उद्घाटन 1955 में हुआ था। कारखाने की कुल अनुमानित लागत ₹ 7.47 करोड़ थी।
ICF स्व-चालित ट्रेन सेट (जिन्हें इंजन की आवश्यकता नहीं है) के अलावा, सामान्य तृतीय श्रेणी के डिब्बों से लेकर सेमी हाई स्पीड ट्रेन सेट, लिंके-हॉफमैन-बुश (LHB) कोच तक कई प्रकार के कोचों का निर्माण करता है।
पिछले कुछ वर्षों में ICF में उत्पादन लगातार बढ़ा और 2019 में इसने 4300 कोचों का उत्पादन किया। ICF ने 65,000 से अधिक कोच बनाए हैं, जो दुनिया के किसी भी रेल कोच निर्माता द्वारा सबसे अधिक है।
ICF में दो मुख्य डिवीजन होते हैं, अर्थात् शेल डिवीजन और फर्निशिंग डिवीजन। शेल डिवीजन रेल कोच के कंकाल का निर्माण करता है, जबकि फर्निशिंग डिवीजन कोच के इंटीरियर और सुविधाओं से संबंधित है। ICF 170 से अधिक किस्मों के कोचों का निर्माण करता है, जिसमें मेट्रो रेक, प्रथम और द्वितीय श्रेणी के कोच, पेंट्री और किचन कार, लगेज और ब्रेक वैन, सेल्फ प्रोपेल्ड कोच, डीजल-इलेक्ट्रिक टॉवर कार, दुर्घटना राहत चिकित्सा वैन, निरीक्षण कार, ईंधन परीक्षण कार, ट्रैक रिकॉर्डिंग कार और लग्जरी कोच शामिल हैं।
ICF ने वंदे भारत एक्सप्रेस नाम से भारत की पहली सेमी हाई स्पीड ट्रेन सेट भी बनाई है, और उसके बाद और एक बनाई है।
रेलवे बोर्ड अन्य मुख्य लाइन संचालन के लिए लगाए जा सकनेवाले इंजनों को राहत देने और इंजन के टर्नअराउंड समय को बचाने के लिए शहरों के बीच MEMU (मेनलाइन इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट) ट्रेनों को संचालित करने की योजना बना रहा है। नियमित ट्रेनों के विपरीत, MEMU ट्रेन सेट को हर 10-15 दिनों में केवल एक बार रखरखाव की आवश्यकता होती है। MEMU ट्रेनों का मुख्य लाभ यह है उनमें तेजी से त्वरण और मंदी हो सकती हैं। दिसंबर 2020 के महीने के दौरान, ICF ने 9 अत्याधुनिक MEMU ट्रेनों का निर्माण किया है और आनेवाले वर्षों में और अधिक निर्माण करने की योजना बना रहा है।
संयंत्र लगभग 10,000 लोगों को रोजगार देता है। यह चेन्नई के एक प्रमुख स्थान में 511 एकड़ में फैला हुआ है और भूमिमार्ग, वायुमार्ग और जलमार्ग द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।
रेल कोच फैक्ट्री (RCF), कपूरथला, पंजाब
1985 में स्थापित, RCF ने स्व-चालित यात्री वाहनों सहित विभिन्न प्रकार के 30,000 से अधिक यात्री डिब्बों का निर्माण किया है। इनकी संख्या भारतीय रेलवे के यात्री डिब्बों की कुल संख्या में 50% से अधिक है। वित्तीय वर्ष 2013-14 में, RCF ने 1500 प्रति वर्ष की स्थापित क्षमता के मुकाबले 1701 कोचों का उत्पादन किया। उस वर्ष के दौरान RCF ने राजधानी, शताब्दी, डबल डेकर और अन्य ट्रेनों जैसी उच्च गतिवाली ट्रेनों के लिए 23 विभिन्न प्रकार के कोचों का निर्माण किया।
DRDE के सहयोग से RCF ने कोचों में जैव-अपशिष्ट के उपचार के लिए एक अत्यधिक लागत प्रभावी स्वदेशी तकनीक भी विकसित की। अकेले 2013-14 में करीब 2096 बायो-टॉयलेट लगाए गए थे।
यह फैक्ट्री बांग्लादेश और कई दक्षिण पूर्व एशियाई और अफ्रीकी देशों को कोचों का निर्यात कर रही है, जिनके पास मीटर गेज रेल नेटवर्क है। मीटर गेज रोलिंग स्टॉक में भारतीय रेलवे का पिछला अनुभव इन बाजारों की सेवा करने में मददगार साबित हुआ है।
2018 में श्रमिकों की संख्या 7355 थी। अब RCF में यह संख्या मात्र 6630 हो गई है।
RCF की संपत्ति में दो केंद्रीय विद्यालयों और अन्य स्कूलों के साथ एक टाउनशिप भी है। इसमें इनडोर और आउटडोर खेलों के साथ-साथ क्लब, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, बैंक, डाकघर, स्टाफ कैंटीन, हस्तशिल्प केंद्र, क्रेच और कंप्यूटर सेंटर के लिए स्टेडियम और कोर्ट के साथ एक झील परिसर भी है।
मॉडर्न कोच फैक्ट्री (MCF), रायबरेली, उत्तर प्रदेश
इस कारखाने का उद्घाटन 2012 में हुआ था, और कुल 541 हेक्टेयर भूमि पर यह है।
इसकी योजना कुल 3,192 करोड़ रुपये की लागत से बनाई गई थी, और उस में 1000 LHB (लिंके होल्फ़मैन बुश) कोचों की वार्षिक उत्पादन क्षमता थी।
महामारी के दौरान सहित, 2018-19 से हर साल कारखाने ने इस लक्ष्य को पार कर लिया है। 2019-20 में उत्पादन 1930 के आश्चर्यजनक आंकड़े पर पहुंच गया, जो क्षमता से लगभग दोगुना था!
स्टेनलेस स्टील LHB कोच के निर्माण के अलावा, MCF आगामी मांगों को पूरा करने के लिए ट्रेन सेट, मेट्रो कोच, एल्यूमीनियम बॉडी कोच, बुलेट ट्रेन कोच और हाई स्पीड कोच का निर्माण कर रहा है।
रेल व्हील फैक्ट्री (RWF), येलहंका, बेंगलुरु, कर्नाटक
यह कारखाना, जिसे व्हील एंड एक्सल प्लांट के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय रेलवे और विदेशी ग्राहकों के उपयोग के लिए रेल वैगन, कोच और इंजनों के पहियों, एक्सल और व्हील सेट का निर्माण करता है। इकाई को 1984 में चालू किया गया था। इसका वार्षिक कारोबार लगभग 82 करोड़ रुपये है और इसमें 2000 से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं।
1980 के दशक की शुरुआत तक भारतीय रेलवे पहियों और धुरों की आवश्यकता का लगभग 55% आयात कर रहा था। स्वदेशी क्षमता केवल टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी [TISCO] और दुर्गापुर स्टील प्लांट [DSP] में उपलब्ध थी। TISCO संयंत्र तकनीकी रूप से पहियों और धुरों की बदलती आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम नहीं था और इसलिए वहां उत्पादन बंद कर दिया गया था।
विश्व बाजार में कीमतों में वृद्धि की वजह से आयात की लागत अधिक थी। आयात के वित्तपोषण तथा आपूर्ति में देरी और विदेशी मुद्रा की सीमित उपलब्धता ने वैगन उत्पादन और चलनेवाले स्टॉक के रखरखाव पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। इसी संदर्भ में RWF का गठन किया गया था। उद्देश्य यह था कि DSP और RWF मानक पहियों और धुरों के लिए भारतीय रेलवे की आवश्यकता को पूरी तरह से पूरा करने में सक्षम हों ताकि उनके आयात को रोका जा सके।
यह कारखाना पहियों के निर्माण में कास्ट स्टील तकनीक का उपयोग करता है जिसके लिए कच्चे माल के रूप में रेलवे की अपनी कार्यशालाओं से एकत्र किए गए स्क्रैप स्टील का उपयोग किया जाता है। उत्पादों को मानवीय त्रुटियों के लिए बहुत कम गुंजाइश के साथ उत्पादन किया जाता है और सख्त गुणवत्ता पर नियंत्रण होता है। इसमें विभिन्न आकारों के लगभग 70,000 पहियों, 23,000 धुरों के निर्माण और 23,000 पहिया सेटों को इकट्ठा करने की योजनाबद्ध क्षमता है।
RWF 2000 से अधिक कर्मियों को रोजगार देता है और इसका वार्षिक कारोबार लगभग 82 करोड़ रुपये है।