भारत में बंदरगाह क्षेत्र

देश के विदेशी व्यापार के लिए बंदरगाहों का एक बड़ा रणनीतिक महत्व है। ये बंदरगाह, भारत के विदेशी व्यापार का, मात्रा के आधार पर लगभग 95% और मूल्य के आधार पर 70% हिस्सा, संभालते हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में निर्यात का योगदान, लगभग 20 प्रतिशत है और इस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार का एक महत्वपूर्ण योगदान है।

हमारे देश की 7500 किमी लंबी तट रेखा के किनारे 12 “प्रमुख बंदरगाह” और लगभग 200 “लघु बंदरगाह” हैं। वर्ष 2019-20 में सभी बंदरगाहों द्वारा संभाला गया कुल कार्गो 132 करोर टन (1320 million tons) था। देश के 12 “प्रमुख” बंदरगाह केंद्र सरकार के स्वामित्व में हैं। 200 से अधिक “मामूली” बंदरगाहों में से केवल 62 कार्गो संभालते हैं, और उनमें से अधिकतर निजी स्वामित्व वाले हैं।

 

 

“मेजर (प्रमुख)” और “माइनर (मामूली)” के बीच बंदरगाहों का विभाजन सही नहीं है क्योंकि तथाकथित “माइनर” बंदरगाहों में से कुछ, देश के “मेजर” कहे जाने वाले कई बंदरगाहों की तुलना में बहुत बड़े हैं। निजी बंदरगाहों की सबसे बड़ी संख्या गुजरात में है और गुजरात के दो बड़े बंदरगाह, मुंद्रा और पीपावाव, देश के सबसे बड़े निजी बंदरगाह हैं। वर्ष 2017-2018 में छोटे (निजी) बंदरगाहों के माध्यम से आयात-निर्यात किए गए कुल कार्गो का 70 प्रतिशत हिस्सा गुजरात के बंदरगाहों द्वारा किया गया था।

 

बड़े और छोटे बंदरगाहों की आयात-निर्यात को सँभालने के कुल वार्षिक क्षमता 150 करोड़ टन है, जिसमें से इस समय केवल 120 करोड़ टन का ही उपयोग किया जाता है।

अडानी पोर्ट्स जिसकी वार्षिक क्षमता 40 करोड़ टन से भी अधिक है, देश का सबसे बड़ा पोर्ट ऑपरेटर है और देश की कुल क्षमता का 25% से अधिक क्षमता का मालिक है. अदानी के स्वामित्व वाला मुंद्रा पोर्ट अब देश का सबसे बड़ा पोर्ट है।
सरकार के नियंत्रण में आने वाले प्रमुख बंदरगाहों से हर साल औसतन लाभ के रूप में रु. 5,000 करोड़ की आमदनी होती है फिर भी उनका निजीकरण किया जा रहा है।

सरकार द्वारा नियंत्रित बंदरगाहों पर नियमित श्रमिकों की संख्या 1993 में 1,13,000 से घटकर अब केवल 24,000 रह गई है। सरकार ने प्रमुख बंदरगाहों में 1 लाख रिक्त पदों को भरने से इनकार कर दिया है।
2019-20 में प्रमुख बंदरगाहों का राजस्व लगभग 16,000 करोड़ रुपये था।

देश के प्रमुख बंदरगाहों के पास 2.7 लाख एकड़ से भी अधिक भूमि है, और यह जमीन, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों में होने के कारण, बहुत ही कीमती है, और इसी लिए ये बंदरगाह, बड़े निजी पूंजीपतियों (कॉर्पोरेट्स) के लिए एक बड़ा आकर्षण का केंद्र है।

 

 

बंदरगाहों का निजीकरण

इस समय किये जाने वाले कार्गो के आयात-निर्यात का लगभग आधा हिस्सा निजी बंदरगाहों के हाथ में हैं और सरकार की निजीकरण को बढ़ावा देने की नीतियों के कारण, उनका हिस्सा बढ़ता ही रहेगा। इसके अलावा, निजी बंदरगाहों को अपनी दरें तय करने के लिए पूरी छूट हैं और वे शुरू में ग्राहकों को लुभाने के लिए दरें कम रखते हैं, जबकि प्रमुख बंदरगाहों पर दरें, सरकार द्वारा तय की जाती हैं।

 

बंदरगाहों का निजीकरण, 1997 में, कांग्रेस सरकार के तहत शुरू हुआ, जब डीपी वर्ल्ड को, जो इस क्षेत्र की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से एक है, जेएनपीटी (जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट), महाराष्ट्र में, एक नया टर्मिनल, न्हावा शेवा इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल (एनएसआईसीटी) बनाने और चलाने का ठेका दिया गया था।
वर्ष 2000 में, बंदरगाहों के लिए, 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति दी गई थी। इसके अलावा, निजी बंदरगाहों, अंतर्देशीय जलमार्गों और अंतर्देशीय बंदरगाहों के विकास, रखरखाव और संचालन के लिए भारतीय और विदेशी पूंजीपतियों को 10 साल तक की टैक्स-हॉलिडे (टैक्स देने की जिम्मेदारी से मुक्ति) की सुविधा दी गयी थी।

भारतीय और बहुराष्ट्रीय बंदरगाह ऑपरेटर, दोनों भारतीय बंदरगाहों पर कब्जा कर रहे हैं या नए बंदरगाहों को बना रहे हैं। अदानी पोर्ट्स इस क्षेत्र का एक प्रमुख खिलाड़ी बन कर उभरा है। अदानी पोर्ट्स, इस समय भारतीय समुद्र तट पर 10 सबसे व्यस्त बंदरगाहों का संचालन करता है और उसने दो अन्य बंदरगाहों का अधिग्रहण भी किया है।

 

 

अदाणी का मुंद्रा बंदरगाह
अधिकांश कंटेनर बंदरगाह और बेर्थ्स, पहले से ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण में हैं। देश के कंटेनर संचालन का एक बड़ा हिस्सा, तीन बड़े अंतरराष्ट्रीय ऑपरेटर, एपीएम टर्मिनल, डीपी वर्ल्ड और पीएसए इंटरनेशनल के हाथों में हैं। जैसे-जैसे अधिक से अधिक सामान्य कार्गो अब कंटेनरों के माध्यम से संभाला जाता है, उनका वर्चस्व भी बढ़ रहा है।

केंद्र में एक के बाद एक आयी हुई सरकारों ने बंदरगाहों के निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए दो तरीकों वाली रणनीति अपनाई है। एक तो वे कई तरीकों से निजी स्वामित्व वाले “माइनर” बंदरगाहों की स्थापना को प्रोत्साहित करते हैं। वे उन स्थानों पर निजी बंदरगाहों की स्थापना का समर्थन करते हैं जिसके द्वारा उन्हें उसी क्षेत्र के “प्रमुख बंदरगाहों” के द्वारा किये जाने वाले व्यापार का बड़ा हिस्सा हड़पने की सुविधा प्राप्त हो. और इस तरह से निजी बंदरगाहों को जल्दी से जल्दी समृद्ध होने की खुली छूट मिले। उदाहरण के लिए, निजी स्वामित्व वाली मुंद्रा, दिघी और विझिंजम को क्रमशः सरकारी स्वामित्व वाली कांडला, जेएनपीटी और कोच्चि बंदरगाहों की तुलना में और अधिक समृद्ध होने के लिए बढ़ावा दिया गया था।
दूसरी रणनीति सरकारी स्वामित्व वाले बंदरगाहों पर, निजी ऑपरेटरों को लाभदायक बर्थ सौंपने की है। (बर्थ वे स्थान हैं जहां जहाजों को डॉक पर खड़ा किया जाता है)। जाहिर है कि, इस का नतीजा यह होगा कि, जल्द ही सरकारी स्वामित्व वाले बंदरगाहों में केवल गैर-लाभकारी बर्थ रह जाएंगे। सरकार यही चाहती है कि उसको कोई बहाना मिले जिसका इस्तेमाल सरकारी स्वामित्व वाले बंदरगाहों को निजी हाथों में बेचने की प्रक्रिया को सही ठहराने के लिए किया जा सके। प्रमुख बंदरगाहों पर कुल 240 बर्थों में से 69 (28%) इस समय पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल के तहत, निजी ऑपरेटरों के हाथों में हैं।

प्रमुख बंदरगाह प्राधिकरण अधिनियम, 2020 के माध्यम से निजीकरण को और अधिक बढ़ावा दिया गया है। केंद्र सरकार के स्वामित्व वाले और ‘ट्रस्ट’ के रूप में चलाए जाने वाले बंदरगाहों को ‘अधिकारियों’ (authority) में परिवर्तित किया जाएगा। ‘पोर्ट अथॉरिटी’ मकान-मालिक मॉडल को अपनाएगी – एक ऐसा मॉडल जिसमें स्वामित्व सरकार के पास रहेगा जबकि निजी कंपनियां बंदरगाह का संचालन करेंगी । जमींदार-बंदरगाह, बदले में, निजी फर्म से, उनके द्वारा कमाए जाने वाले राजस्व का एक हिस्सा किराये बतोर लेगा। बंदरगाहों के लिए इस तरह का मकान-मालिक मॉडल निजीकरण करने का ही एक तरीका है। भूमि अधिग्रहण सहित बंदरगाह के निर्माण के लिए निवेश, सरकार द्वारा किया जाएगा। एक बार बन जाने के बाद, इस बंदरगाह का संचालन करके मुनाफा कमाने के लिए, उसे पूंजीपतियों को सौंप दिया जाएगा।