कामगार एकता कमेटी (केईसी) संवाददाता की रिपोर्ट
IDBI अधिकारियों और कर्मचारियों ने यूनाइटेड फोरम ऑफ आईडीबीआई ऑफिसर्स एंड एम्प्लॉइज के बैनर तले 2 अप्रैल को दिल्ली के जंतर-मंतर पर आईडीबीआई बैंक के प्रस्तावित निजीकरण के विरोध में धरना दिया। उन्होंने बैंक में प्रस्तावित रणनीतिक विनिवेश के विरोध में चल रहे अभियान के तहत उसी दिन कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में ‘IDBI बैंक निजीकरण’ पर एक सेमिनार भी आयोजित की।
धरने से पहले उन्होंने विपक्षी पार्टी के नेताओं को ज्ञापन सौंपकर मामले में हस्तक्षेप करने की मांग की।
फोरम ने सांसदों का ध्यान तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री जसवंत सिंह द्वारा 2003 में दिए गए आश्वासन की ओर आकर्षित किया कि केंद्र बैंक में 51 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी का विनिवेश नहीं करेगा। लेकिन वित्त मंत्रालय अब केंद्र की 30.48 प्रतिशत हिस्सेदारी और एलआईसी की 30.24 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया में है।
फोरम के संयोजक देवीदास तुलजापुरकर और संयुक्त संयोजक रत्नाकर वानखड़े और विट्ठल कोटेश्वर राव एवी ने कहा कि कोई कारण नहीं है कि इस लाभ कमाने वाली इकाई को निजी संस्थाओं को बेचा जाना चाहिए, विशेषकर विदेशी मूल की संस्थाओं को। उन्होंने कहा, “बोलीदाताओं की रुचि वित्तीय सेवाएं देने की तुलना में बैंक की हैदराबाद में 50 एकड़ जमीन सहित विभिन्न संपत्तियों में अधिक है।” यह मानने का कारण है कि बोलीदाता न केवल केंद्र बल्कि नियामकों से भी विभिन्न रियायतें और छूट प्राप्त करने के लिए कड़ी मोलभाव कर रहे हैं।
बैंक ने 1964 से 2004 तक एक विकास वित्तीय संस्थान के रूप में और 2004 से एक सार्वभौमिक बैंक के रूप में काम किया। इसकी 2,064 शाखाएँ हैं और यह 18.72 लाख जन धन खाताधारकों सहित दो करोड़ जमाकर्ताओं को सेवा प्रदान करता है।