मुंबई के लोकल ट्रेन यात्रियों की परेशानियां रोज़ का भयानक सपना

कामगार एकता कमेटी के संवाददाता की रिपोर्ट

एक समय मुंबई अपने उद्योगों के लिए जाना जाता था; आज इसे देश की आर्थिक राजधानी कहा जाता है। इसे बॉलीवुड के शहर, ”सपनों के शहर“ के रूप में प्रचारित किया जाता है। ग़रीबी से अमीरी तक की अनगिनत कहानियां प्रचारित की जाती हैं जो देशभर से मेहनतकश लोगों को अपनी ओर खींचती हैं। वहां पहुंचने पर लोगों को एहसास होता है कि वास्तविकता फिल्मों में दिखाए जाने वाले सपनों से बहुत अलग है।

मुंबई सात द्वीपों और समुद्र से निकाली गई भूमि पर बसा है। सभी बड़े व्यवसाय और कार्यालय, बेहतरीन कॉलेज और अस्पताल, साथ ही सबसे अमीर हिन्दोस्तानियों के कई घर एक छोटे से इलाके – दक्षिण और मध्य मुंबई – में केंद्रित हैं। इस इलाके में अच्छा सार्वजनिक बुनियादी ढांचा है – अच्छी सड़कें, रोशनी, जल निकासी, आदि। टैक्सों के माध्यम से इकट्ठा किया गया सार्वजनिक धन – प्रत्यक्ष और सबसे महत्वपूर्ण अप्रत्यक्ष – यहीं खर्च किया जाता है।

एक समय में मध्य मुंबई कपड़ा मिलों और मज़दूरों के छोटे-छोटे घरों से भरी हुई थी। इन मिलों के बंद होने से मज़दूरों ने न सिर्फ़ अपनी नौकरियां खो दीं, बल्कि हज़ारों ने अपने आवास भी खो दिए। उनकी ज़मीनें बड़े-बड़े बिल्डरों को कौड़ियों के दाम पर दे दी गईं। बिल्डरों ने चमचमाते दफ़्तर, मॉल और आलीशान आवासीय इमारतें खड़ी कर लीं। घरों की क़ीमतें इतना आसमान छू रही हैं कि मेहनतकश लोग वहां रहने का ख़र्च नहीं उठा सकते।

मेहनतकश जनसमूह उत्तरी मुंबई या ठाणे जिले के आस-पास के क़स्बों में रहने के लिये मजबूर हैं। जैसा कि पूंजीवाद में हर जगह होता है, जिन इलाकों में मेहनतकश लोग रहते हैं, वहां सार्वजनिक सुविधाओं का घोर अभाव होता है। कुछ भी स्वाभाविक रूप से नहीं दिया जाता। हर छोटे से छोटे सुधार के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

लाखों लोगों के पास रोज़ाना काम या पढ़ाई के लिए सफ़र करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यहीं से उपनगरीय ट्रेनों पर निर्भरता आती है। इनमें से कई क़स्बों और उनके उपनगरों और मुंबई के बीच कोई अच्छा सड़क संपर्क नहीं है। सार्वजनिक बस सेवाएं बेहद अपर्याप्त हैं। यातायात के लिये उपनगरीय ट्रेनें सबसे तेज़ और सस्ता साधन हैं।

बहुत से लोगों के पास रोज़ाना 3-4 घंटे उपनगरीय ट्रेनों में बिताने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। 8-12 घंटे काम के अलावा, उनके जीवन में किसी और चीज़ के लिए लगभग कोई समय ही नहीं बचता! महिलाओं के लिए तो यह और भी बुरा है – परिवार की आय में योगदान देने के अलावा, ज़्यादातर परिवारों में खाना बनाना, सफ़ाई, बच्चों की देखभाल, बीमारों और बुजुर्गों की देखभाल करना उनकी ज़िम्मेदारी मानी जाती है।

क्या मुंबई उपनगरीय ट्रेन व्यवस्था जीवन रेखा है या मौत का जाल?

मुंबई की खचाखच भरी उपनगरीय ट्रेन सेवा

प्रतिदिन लगभग 75 लाख लोग मुंबई उपनगरीय ट्रेनों से यात्रा करते हैं। प्रत्येक कोच में बैठने की क्षमता 86 है। परंतु, व्यस्त समय के दौरान, इस संख्या से 4-5 गुना अधिक लोगों को अंदर ठुंसना पड़ता है। कई लोगों के पास बाहर लटककर यात्रा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। भीड़ इतनी अधिक होती है कि लोगों को ट्रेन रुकने से पहले अपने स्टेशन पर बाहर कूदना पड़ता है; अन्यथा, वे अंदर घुसने वाले यात्रियों की भीड़ में फंस जाते हैं। व्यस्त समय के दौरान वृद्धों, कमज़ोर व्यक्तियों और गर्भवती महिलाओं या बच्चों के लिए उपनगरीय ट्रेनों से यात्रा करना लगभग असंभव है। हर दिन कई यात्री गिरकर मर जाते हैं!

स्टेशनों का बुनियादी ढांचा बहुत ख़राब है या मौजूद ही नहीं है। यात्री फुट ओवरब्रिज (पटरियों को पैदल पार करने का पुल) आमतौर पर संकरे और कमज़ोर अवस्था में हैं। भीड़ होने पर कई पुल हिलने-डुलने लगते हैं; कुछ टूट गए हैं। कभी-कभी भीड़ इतनी अधिक होती है कि बाहर निकलने में ही 15-20 मिनट का समय लग सकता है। यही कारण है कि कुछ यात्री पटरियों पर चलकर उन्हें पार करते हैं और दूसरी ट्रेनों के पहियों के नीचे कुचले जाते हैं।

समय-सारिणी में ट्रेनों की संख्या सेवा की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा, लगभग सभी ट्रेनें देरी से चलती हैं, ख़ासकर व्यस्त समय के दौरान। कई ट्रेनें रद्द कर दी जाती हैं। कुछ बड़े स्टेशनों पर, प्लेटफॉर्म अचानक बदल दिए जाते हैं। संकेतक ग़ायब या ग़लत होते हैं। कई बार, घोषणाएं बहुत देर से की जाती हैं या ग़लत भी होती हैं। जब यात्रियों को भीड़ से जूझते हुए एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म तक दौड़ना पड़ता है, इससे अस्त-व्यस्तता और बढ़ जाती है।


लगभग भगदड़ जैसी स्थिति यात्रियों के लिए रोज़मर्रा की सच्चाई है – और यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जिसे अक्सर मुंबई की जीवन रेखा कहा जाता है, वह अपने दैनिक यात्रियों के लिए तेज़ी से मौत का जाल बनती जा रही है। मुंबई में रेल की पटरियों पर होने वाली मौतों और घायलों की संख्या भयावह है। पिछले 20 वर्षों में ऐसी 51,000 से ज़्यादा मौतें हुई हैं। औसतन हर दिन 7 लोग मरते हैं! 2024 में 2468 मौतें हुईं और 2697 घायल हुए। जनवरी से मई 2025 तक 922 मौतें हो चुकी हैं!

हालात इतने ख़राब हैं कि रेलवे कर्मचारियों और उनके परिवारों के साथ-साथ पुलिसकर्मियों को भी दूसरे साधारण यात्रियों की तरह यात्रा करनी पड़ती है।

कई स्टेशनों पर बुनियादी सुरक्षा व्यवस्थाएं ग़ायब हैं। इनमें प्राथमिक उपचार बॉक्स, एम्बुलेंस और डॉक्टर या आपातकालीन कक्ष शामिल हैं। कई स्टेशनों पर घायलों को ले जाने के लिए स्ट्रेचर उठाने वाले हमाल (कुली) तक नहीं हैं। इसका मतलब है कि अनगिनत पीड़ित इलाज में देरी या उसके अभाव के कारण मर जाते हैं या हमेशा के लिए अपंग हो जाते हैं। एक दुखद मामला तब हुआ जब दिवा स्टेशन मास्टर खुद एक दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की मदद के लिए गए, लेकिन खुद ही कुचलकर मारे गए!

कई स्टेशनों पर स्टेशन प्रबंधक या स्टेशन मास्टर (एसएम) नहीं हैं, और टिकटिंग करने वाले व्यक्ति को ही उनकी ड्यूटी सौंपी गई है। ऐसे स्टेशनों के लिए आधिकारिक तौर पर नज़दीक के स्टेशन एसएम को ज़िम्मेदार बनाया जाता है। हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि एक एसएम किसी ऐसी जगह पर किसी समस्या का ध्यान रख सकेगा जहां वह मौजूद ही नहीं है? अधिकांश स्टेशनों पर टिकट ख़रीदने की पर्याप्त खिड़कियां नहीं हैं। मुंबई के कई रेलवे स्टेशनों पर ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कर्मचारियों की कमी के कारण कई टिकट खिड़कियां चालू नहीं हैं। हमें रिक्त पदों को तुरंत भरने की मांग करनी होगी ताकि यात्रियों को कुशल सेवाएं मिल सकें और कर्मचारियों के काम का बोझ कम हो सके।


पशुओं के लिए तो कुछ व्यवस्था है परन्तु इनसानों के लिए नहीं!

ज़्यादातर स्टेशन गंदे हैं और उनमें यात्री सुविधाएं नहीं हैं। अगर शौचालय हैं भी तो वे बदबूदार होते हैं और अक्सर पानी के बिना होते हैं। कई स्टेशनों पर पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। ज़्यादातर स्टेशनों पर रैंप, लिफ्ट और एस्केलेटर नहीं हैं। प्लेटफॉर्म पर यात्रियों को बैठने के लिये पर्याप्त बैंचें नहीं हैं, न ही पर्याप्त पंखे हैं। कई प्लेटफॉर्मों की छतें आंशिक रूप से खुली हुई हैं, जिसका मतलब है कि घनी भीड़ के कारण वहां इंतजार करने के लिए मजबूर यात्रियों को गर्मी या बारिश का सामना करना पड़ता है।

लोग मूकदर्शक पीड़ित नहीं हैं

मुंबई और उसके उपनगरों में कई यात्री समूहों और अन्य संगठनों द्वारा लंबे समय से सुरक्षित और अधिक आरामदायक रेल यात्रा की मांग की जा रही है। केईसी ने इस मुद्दे को हल करने के लिए बहुत से ऐसे संगठनों के साथ सक्रिय रूप से सहयोग किया है।

कभी-कभी यात्रियों का गुस्सा स्वतः ही रेल रोको के रूप में फूट पड़ता है। ऐसे मामलों में, जबकि सरकार लोगों को शांत करने के लिये कुछ राहत देने के टुकड़े फेंकती है, बहुत से प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार कर लिया जाता है और उन्हें अंतहीन अदालती मामलों में समय, ऊर्जा और पैसा ख़र्च करना पड़ता है।

हाल ही में मुंब्रा हादसे के बाद, लोगों के उग्र मिजाज को भांपते हुए, अधिकारियों ने कई समाधानों की घोषणा की है। इस मामले में, वे जो समाधान बता रहे हैं, वह बीमारी से भी बदतर है!

उदाहरण के लिये, सरकार की यह घोषणा है कि सभी उपनगरीय ट्रेनों में चलने के पहले दरवाजे़ बंद कर दिए जाएंगे। उन लोगों का क्या होगा जो अंदर नहीं जा पाएंगे? वे अनिश्चित काल तक इंतजार करते रहेंगे, क्योंकि प्लेटफॉर्म पर भीड़ बढ़ती रहेगी! और जो अंदर घुसने में क़ामयाब हो भी गए, उनका क्या? वे और भी ज़्यादा कुचले जाएंगे और दम घुटने से मरेंगे!

असली समाधान हैं!


सबसे स्पष्ट समाधान है आधुनिक  सिग्नलिंग प्रणाली स्थापित करके उपनगरीय ट्रेनों की संख्या बढ़ाना ताकि लगातार चलने वाली उपनगरीय ट्रेनों के बीच की दूरी और अंतराल को कम किया जा सके। यह कोई रॉकेट विज्ञान नहीं है – यह तकनीक पूरी दुनिया में और यहां तक कि हिन्दोस्तान में भी मेट्रो ट्रेनों के लिए लागू की जा चुकी है। आधिकारिक एजेंसी, एमआरवीसी (मुंबई रेल विकास निगम) ने 2016-17 में ही ऐसी सिफ़ारिश की थी। जैसा कि उन सिफ़ारिशों के साथ होता है जिनसे वास्तव में लोगों को फ़ायदा होता है, इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है।

दूसरा समाधान यह है कि हर उपनगरीय ट्रेन में डिब्बों की संख्या 12 से बढ़ाकर 15 कर दी जाए। इसके लिए बुनियादी ढांचा पहले से ही मौजूद है। 15 डिब्बों वाली ट्रेन आज भी दिन में कभी-कभार ही चलती है।

वास्तव में यह चैंकाने वाली बात है कि कभी-कभी 15 डिब्बों की ट्रेन भी 12 डिब्बों वाली ट्रेन में बदल दी जाती है। कारण? रखरखाव विभाग में बड़े पैमाने पर ठेकेदारी प्रथा के कारण, कई बार पर्याप्त कर्मचारी उपलब्ध नहीं होते!

समाधान हैं, लेकिन वे तभी लागू होंगे जब इस मांग को लेकर लोगों का एक बड़ा जन आंदोलन खड़ा किया जाएगा! केईसी और अन्य संगठन ठीक यही कर रहे हैं।

अनुभव यह है कि सिर्फ़ अधिकारियों से मिलने, पत्र लिखने आदि से शायद ही कुछ ख़ास हासिल होता है। हालांकि, जन अभियानों के ज़रिए, केईसी और अन्य संगठन कुछ स्टेशनों और उनके आसपास के इलाकों में बुनियादी ढांचे में कुछ सुधार लाने में क़ामयाब रहे हैं।

हाल के महीनों में, इसे और अधिक संगठित और व्यवस्थित तरीके़ से करने के प्रयास शुरू हुए हैं।

 

 

 

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