हमें संघर्ष को केवल बैंकिंग यूनियनों के गलियारों से आगे बढ़ाना होगा – श्री वेंकटचलम, महासचिव, अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (AIBEA)

हमें संघर्ष को केवल बैंकिंग यूनियनों के गलियारों से आगे बढ़ाना होगा और वहां AIFAP हमारे संघर्ष के संदेश को लोगों के अधिक वर्गों तक ले जाने में हमारे लिए बहुत उपयोगी और सहायक होने जा रहा है, क्योंकि लाभार्थियों को जुटाना है, लोगों को जुटाना होगा, बैंक में पैसे बचानेवालों को जुटाना होगा।

19 दिसंबर 2021 को AIFAP द्वारा आयोजित बैठक “निजीकरण के खिलाफ एकजुट हों – बैंकों, बीमा और कोयला खानों के निजीकरण का विरोध करने के लिए वर्तमान चल रहे राष्ट्रीय संघर्ष”, में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (AIBEA) के महासचिव श्री सी.एच. वेंकटचलम के भाषण की प्रतिलिपि

शुभ संध्या, दोस्तों और साथियों और सह-सेनानियों। सबसे पहले AIFAP के कॉमरेड मैथ्यू को इस कार्यक्रम की व्यवस्था करने और हमें संघर्ष पर बोलने का मौका देने के लिए धन्यवाद। बहुत-बहुत धन्यवाद, और मुझे विश्वास है कि इससे जिन मुद्दों पर हम जूझ रहे हैं, उन पर जनता की राय बनाने और संवेदनशीलता बनाने में हमें मदद मिलेगी । सबसे पहले तो मुझे इस बात की खुशी है कि किसानों के संघर्ष के कारण अभी उत्साहजनक परिस्थिति है जहां सरकार को पीछे जाने पर मजबूर होना पड़ा है। यह हमारे लिए बहुत अच्छी खबर है और मैं अपनी छोटी-छोटी टिप्पणियों की शुरुआत उन 700 से अधिक किसानों को श्रद्धांजलि देकर करना चाहता हूं, जिन्होंने संघर्ष के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। और मुझे विश्वास है कि इस बलिदान को कार्यकर्ता बहुत कृतज्ञता से याद रखेंगे।

मुझे नहीं लगता कि मुझे इस मुद्दे पर बोलने के लिए ज्यादा समय चाहिए, क्योंकि बैंकों के निजीकरण के सरकार के प्रयासों के खिलाफ बैंक यूनियनें क्यों लड़ रहे हैं, यह मुद्दा अब तक ज्यादातर लोगों को पता है। बेशक बैंक बहुत महत्वपूर्ण हैं। कोई भी निजीकरण अनुचित है, और स्वाभाविक रूप से बैंक के निजीकरण के अधिक निहितार्थ हैं क्योंकि हम लोगों के पैसे से निपटते हैं। अब तक हम सभी जानते हैं कि हमारे देश की GDP लगभग तीन ट्रिलियन डॉलर है, और हमारे पास बैंकों में लोगों की जमा राशि उसके लगभग 75% के बराबर है। लोगों के 157 लाख करोड़ रुपये बैंकों में जमा है। तो यह बहुत बड़ा धन है और इसका 90% पैसा घरेलू बचत है। यह रिजर्व बैंक का धन नहीं है, यह सरकार का धन नहीं है, और यह अंबानी या अडानी जैसे कॉरपोरेट्स का धन नहीं है। वे बैंकों में धन नहीं रखते हैं। तो यह लोगों की बचत का बड़ा हिस्सा है – श्रमिक वर्ग या मजदूर वर्ग, मध्यम वर्ग, सेवानिवृत्त लोग। तो भारत जैसे विकासशील देश में यह बहुत महत्वपूर्ण सामाजिक पूंजी है। तो अब बैंकों का ध्यान रखना चाहिए, अगर हमें बैंकों को उपलब्ध इस विशाल सामाजिक पूंजी का ध्यान रखना है।

नंबर दो यह है कि भारत अभी भी एक विकासशील देश है। कई क्षेत्र ऐसे हैं जो पिछड़े हैं। और हाल ही में बहु-आयामी गरीबी पर यह विश्व रिपोर्ट आई थी, जहां यह शर्मनाक बात दर्ज है कि हमारी आबादी का लगभग 25%, हमारे भाई और बहनें, रिपोर्ट के अनुसार, बहु-आयामी गरीबी से पीड़ित हैं। तो यह है अर्थव्यवस्था की स्थिति। इसलिए हमें स्वतः ही यह समझना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में, आर्थिक विकास में आगे बढ़ने, आदि में बैंकों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

सरकार भी पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की बात कर रही है। ठीक है। लेकिन हम यह कैसे करेंगे? निजीकरण करके? मुझे नहीं ऐसा लगता। यह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूत करके ही होना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि विकासशील परिदृश्य में बैंक अर्थव्यवस्था यह तंत्रिका केंद्र या रीढ़ हैं। और विशेष रूप से भारत में, जहां बैंक जनता के भारी धन का लेन-देन करते हैं। हमें इसे इस तरह से करना होगा कि यह हमारे राष्ट्रीय लक्ष्यों और उद्देश्यों और विकास आदि को पूरा करे।

मैं केवल इतना कहता हूं कि प्रथम हमारा अतीत है जिसे हमने अनुभव किया है, दूसरा, वर्तमान चुनौतियां और तीसरा यह कैसे सामने आएगा। ये तीन चीजें हैं जिन्हें हमें समझने की जरूरत है।

बैंकिंग का अतीत बहुत कड़वा था। मैं आजादी से पहले की बात कर रहा हूं जहां बड़ी संख्या में निजी बैंक ध्वस्त हो गए: लगभग पचास वर्षों में, 2000 से अधिक निजी बैंक – आज यह अकल्पनीय है। 2000 से अधिक निजी बैंक ध्वस्त हो गए हैं। और बैंक के ढहने से लोगों का पैसा डूब जाता है। और, रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, ये सभी विफलताएं इन बैंकों के मालिकों द्वारा कुप्रबंधन के कारण थीं – अनियमितताएं, धोखाधड़ी, कुप्रबंधन, आदि। तो, यह एक बात है। और आज हम बैंक की विफलता के उस परिदृश्य को बर्दाश्त नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ लोगों का बहुत बड़ा पैसा है। इसलिए नंबर एक है लोगों के पैसे की सुरक्षा है। इसलिए जहां सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक रक्षक हैं, वे लोगों के पैसे के रक्षक हैं। तो इस तरह हमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा लोगों के पैसे की रक्षा करने की आवश्यकता है। इसलिए निजीकरण ठीक नहीं है।

दूसरा है, विकास। तो ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन्हें अब भी एक धक्का देने की जरूरत है – जिसे हम प्राथमिकता क्षेत्र कहते हैं – कृषि क्षेत्र, रोजगार सृजन / निर्मिती, गरीबी कम करना, ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण, फिर शिक्षा, फिर स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना! और उन्हें आर्थिक मदद की जरूरत है। और वह केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के द्वारा होता है। आज भी हमारे पास कुछ निजी बैंक हैं। भारत जैसी मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र होगा। लेकिन उनका क्या योगदान रहा है? पहले नहीं, आज भी। इसलिए आगे बढ़ते हुए, देश के आर्थिक विकास के लिए हमें बहुत मजबूत, जीवंत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आवश्यकता है। तो यह अर्थव्यवस्था के विकास के लिए है।

आज क्या हैं चुनौतियां? हम पाते हैं कि सभी बैंक अच्छा कर रहे हैं। सरकार कह रही है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कुशल नहीं हैं, निजी बैंक अच्छे हैं, इ.। लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह असली कहानी नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक ठीक हैं, उनके पास पर्याप्त पूंजी है, और लोगों की सेवा के लिए उनकी लगभग एक लाख शाखाएँ हैं। और हम लोगों के एक विशाल समुदाय की सेवा करते हैं और हम उनकी जमा राशि रखते हैं, उन्हें सुरक्षित रखते हैं, उन्हें उधार देते हैं और हम मुनाफ़ा कमा रहे हैं। सभी बैंक मुनाफ़ा कमा रहे हैं। हमारे द्वारा अर्जित कुल परिचालन मुनाफ़े के बाद प्रावधान की समस्या है। अधिकांश धन को खराब ऋणों के प्रावधान के लिए डायवर्ट किया जाता है। इसलिए शुद्ध मुनाफ़े में गिरावट है। घाटे में नहीं, लेकिन खराब ऋणों के प्रावधान के लिए बहुत सारा धन जा रहा है।

उदाहरण के लिए, वित्तीय वर्ष 2021 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल परिचालन मुनाफा 1,90,000 करोड़ रूपये था । ऐतिहासिक! पिछले सौ सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि बैंक इतना मुनाफा कमा रहे हैं। भारी मुनाफा। लेकिन बैलेंस शीट में घोषित शुद्ध मुनाफा की राशि बमुश्किल 32,000 करोड़ रुपये थी। क्योंकि बैंकों ने जो परिचालन मुनाफा कमाया है, उसमें से करीब 1,45,000 करोड़ रुपये डूबे कर्ज के लिए मुहैया कराए गए। तो यही वह समस्या है जिसका हम सामना कर रहे हैं। खराब कर्जों के लिए बैंकों को इतना बड़ा धन क्यों देना पड़ता है? क्योंकि खराब कर्जा जमा हो रहे हैं। फंसे हुए महाकाय कर्ज। अब व्यंजना से वे इसे गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) कहते हैं। लेकिन मुझे नहीं पता कि यह कैसे एक संपत्ति है। सिवाय इसके कि बैलेंस शीट पर यह संपत्ति (एसेट) की तरफ अंकित होता है। दरअसल यह देनदारी है, पैसा नहीं आता। लेकिन हमें यह समझना होगा कि कुछ कर्ज तो जरुर खराब हो जाएगा। आज हम खराब कर्जा और NPA के बारे में बहुत कुछ बोलते हैं, लेकिन सौ साल पहले से बैंक अस्तित्व में हैं; कभी-कभी बैंकों ने पैसा दिया है जो वापस नहीं आया है। लेकिन आज, एक बात जब हम इस मुद्दे पर अभी चर्चा करते हैं, तो हमें इस समस्या को 1990-91 में हुए नीतिगत परिवर्तनों के साथ जोड़ना चाहिए, जब सरकार ने उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण का रास्ता अपनाया। तो आज जो हो रहा है उस पर बैंकिंग उदारीकरण का भी अपना प्रभाव है। 1990 से पहले बैंक थे और खराब कर्ज थे। लेकिन आज व्यवस्थित तरीके से खराब कर्ज बनाना एक अधिग्रहण कला बन गया है। कुछ लोग खोजबीन करके यह पा रहे हैं कि खराब कर्ज तेजी से बढ़ रहे हैं।

आपके विचार को ताज़ा करने के लिए मेरे पास कुछ आंकड़े हैं। 2004 में जब संप्रग-1 आया तो कुल NPA केवल 54,000 करोड़ था। 2009 में संप्रग-2 के दौरान वे गिरकर 45,000 करोड़ हो गये। लेकिन 2014 में राजग-1 आया और यह बढ़कर 2,14,000 करोड़ हो गया और 2019 में राजग-2 के दौरान, यह 7,29,045 करोड़ हो गया और आज यह 6.16 लाख करोड़ हो गया है। तो हाल के वर्षों में NPA बढ़ गये हैं, और वह उदारीकरण के कारण है। आप जानते हैं, जिस क्षण आप बैंकिंग नियमों और कर्जा नीति आदि को उदार बनाते हैं, स्वाभाविक रूप से लोग खामियों को ढूंढते हैं और बैंकों को लूट रहे हैं। तो पैसे की वसूली कैसे करें? बैंक कर्ज की वसूली को कैसे मजबूत किया जाए, यही मसला है।

निजीकरण कोई मुद्दा है ही नहीं। और एक और बात जो हमें ध्यान में रखनी चाहिए, जब निजीकरण के पैरवीकार हों – हमारे देश में निजी क्षेत्र का, विशेषकर निजी क्षेत्र के बैंकों का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है?

1960 से पहले इतने सारे बैंक धराशायी हो चुके हैं। यहां एक बात और संयोग से है, अभी तीन दिन पहले प्रधान मंत्री मोदी ने कहा है कि हमने जमा बीमा को बढ़ाकर पांच लाख कर दिया है। हम लोगों के दोस्त हैं, इसलिए हम सीमा बढ़ाकर पांच लाख कर रहे हैं, आदि। यह वास्तव में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधान मंत्री बोल रहे हैं। एक, उन्हें तो कहना होगा कि मैं यहां हूं। मैं आपके बैंक के पैसे का चौकीदार हूं। तो चिंता न करें, बैंक विफल नहीं होंगे। लेकिन इसके बजाय वे कहते हैं कि बैंक विफल हो सकते हैं, और मैं आपको प्रति व्यक्ति पांच लाख दूंगा। तो यह पहली बात है, जो एक उचित बयान नहीं था।

लेकिन वैसे भी वे प्रधान मंत्री हैं और उन्होंने यह बयान दिया है। लेकिन यहां भी हम आप सभी को सूचित करना चाहेंगे कि 1960-61 में, उस समय AIBEA के महासचिव कॉमरेड प्रभाकर पश्चिम बंगाल से सांसद भी थे और उन्होंने इस मामले को संसद में उठाया था कि विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल, आदि में इतने सारे बैंक गिर रहे हैं। और इसलिए एक आयोग का गठन किया गया और उन्होंने अनियमितताएं पाईं। तो बस उसी को पूरा करने के लिए जमा बीमा आया। वही पहली बात है।

लेकिन साथ ही साथ कॉमरेड प्रभाकर ने उस समय कई सांसदों द्वारा समर्थित संसद में एक बात उठाई। उन्होंने कहा कि इससे निपटने के लिए आपको कोई मैकेनिज्म ढूंढ़ना होगा। यह जमा बीमा ठीक है, लेकिन एक मैकेनिज्म होना चाहिए। इसलिए 1961 में RBI अधिनियम की धारा 45 में एक विशिष्ट संशोधन किया गया था। 1961 से पहले, यदि कोई बैंक धोखाधड़ी या कुप्रबंधन के कारण अच्छा नहीं करता था, और बैंक मुश्किल में था, तो उसका परिसमापन कर दिया जाता था और लोगों का पैसा डूब जाता था।

कानून में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। रिजर्व बैंक को मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार देने के लिए RBI अधिनियम धारा 45 में संशोधन किया गया; परिसमापन के बजाय, बैंक को मोराटोरियम में डाल दें और बैंक को दूसरे बैंक को सौंप दें, दूसरे बैंक में विलय कर दें। तो 1961-62 के बाद से आप पाएंगे कि भारत में निजी बैंकों सहित एक भी वाणिज्यिक बैंक फेल नहीं हुआ है। इसलिए 1961-62 के बाद, जब एक असफल बैंक के विलय का प्रावधान है, तो बीमा कराने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है!

यह प्रावधान सहकारी बैंकों पर लागू नहीं है। इसलिए अब उन्हें पंजाब-महाराष्ट्र सहकारी बैंकों में समस्या का सामना करना पड़ रहा है। वे इस रिजर्व बैंक अधिनियम द्वारा शासित नहीं हैं। तो वहां आपको चाहे एक लाख, पांच लाख तक बीमा बढ़ाना पड़ सकता है। यह वाणिज्यिक बैंकों पर लागू नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से प्रधान मंत्री ने एक खुला बयान दिया, एक सामान्य बयान कि बैंक विफल हो सकते हैं लेकिन मैं आपको पांच लाख दूंगा।

किसी भी मौजूदा कानून के तहत यह संभव नहीं है कि एक वाणिज्यिक बैंक विफल हो सकता है। वह समस्या का सामना कर सकता है लेकिन इसे स्थगन पर रखा जाएगा, जैसा कि आप देख सकते हैं। YES बैंक मुश्किल में था लेकिन अब उसमें धन डाला गया है। लक्ष्मी विलास बैंक एक निजी बैंक था। अब इसे सिंगापुर बैंक को दे दिया गया है। तो यह हमें समझना होगा। कि भारत में कोई भी बैंक विफल नहीं हो सकता, वाणिज्यिक बैंक। और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक तो विफल हो ही नहीं सकते। सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। यह थी पहली बात।
नंबर दो, 99 प्रतिशत NPA निजी क्षेत्र के कारण हैं। 99 प्रतिशत! यदि निजी क्षेत्र इतना कुशल है, तो निजी क्षेत्र को दिया गया कर्जा, उसका सही उपयोग क्यों नहीं किया गया? उन्होंने मुनाफा क्यों नहीं कमाया? उन्होंने पैसे क्यों नहीं लौटाए? तो ये सब बकवास है।

इसलिए अब उन्होंने एक और सुधार किया है। दिवाला और दिवालियापन संहिता (Insolvency and Bankruptcy Code, IBC) जहां चूककर्ता या उधार न लौटनेवाले का मामला राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण, (यानि National Company Law Tribunal, NCLT) को भेजा जाता है। और अब एक नई बात हो रही है। न्यायाधिकरण खराब कर्जा की नीलामी कर रहा है और कोई खरीद रहा है, अंततः छूट पर। पहले यह 20% – 30% छूट हुआ करता था। अब यह बढ़कर 95 फीसदी हो गया है।

वीडियोकॉन पर 46,000 करोड़ का कर्ज था। इसे ट्रिब्यूनल के पास भेजा गया। इसे 2,900 करोड़ रुपये में बेच दिया गया। 94 प्रतिशत समझौता।
फिर हमारे पास आलोक टेक्सटाइल्स केस है। उसका भी करीब 25,000 करोड़- 30,000 करोड़ का कर्ज था। आलोक टेक्सटाइल्स ने पैसा नहीं लौटाया। इसलिए यह दिवाला और दिवालियापन न्यायालय में गया। रिलायंस आया और कहा कि मैं तुम्हें 5,000 करोड़ दूंगा। तीस हजार करोड़ में से उन्होंने कहा कि हम आपको पांच हजार करोड़ देंगे! वास्तव में उधारदाता, बैंकर सहमत नहीं थे। IBC में शुरू में एक प्रावधान था कि उधारदाताओं को किसी विशेष बोली/बेचने के प्रस्ताव के लिए वोट देना होता है और 75% लोगों को समर्थन में मतदान करना है, और उसके बाद ही प्रस्ताव पारित होगा। लेकिन रिलायंस और अलोक टेक्सटाइल्स के मामले में सिर्फ 66 फीसदी ही मत आए। अगले दिन मोदी सरकार ने सीमा को 75% से घटाकर 66% कर दिया, और इसलिए प्रस्ताव पारित हो गया!

तो इस तरह IBC के नाम पर खुली लूट हो रही है। वसूली नहीं हो रही है। वहीं दूसरी ओर वे बैंकों का पैसा लूट रहे हैं। इस वजह से बैंकों के मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा खराब ऋणों के प्रावधान में जा रहा है। तो बैंक मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन इसे खराब ऋणों के लिए डायवर्ट किया जा रहा है और समायोजित किया जा रहा है! तो इस तरह, निजीकरण द्वारा बैंक फिर उन्हीं लोगों को बिक रहे है जो बैंक खरीदने का खर्च उठा सकते हैं। सभी बैंक विशाल बैंक हैं। बैंक बिकेंगे तो फिर वही होगा। हमारे पास महाराष्ट्र में यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक का उदाहरण है। दो भाइयों ने सौ करोड़ का कर्ज लिया और भुगतान नहीं किया। यह NPA हो गया। इसलिए जब बैंक को पूंजी चाहिए थी, तो इन लोगों ने पूंजी दी। उन्होंने शेयर खरीदे और निर्देशक बन गए। उन्होंने फिर से दुरुपयोग किया और अंततः बैंक को IDBI बैंक ने अपने कब्जे में ले लिया।
तो यह वह खतरा है जो हम पाते हैं। बैंक के निजीकरण से पूरा देश और जनता का पैसा फंस जाएगा। इसलिए हम लड़ रहे हैं। और एक और धारणा है, कि आज केवल यह सरकार ही (निजीकरण कर रही है )। यह उदारीकरण नीति की एक भाग है। 1991 से इतनी कमेटियां आयीं। 1991 नरसिम्हन समिति नंबर 1 आयी। इसने निजीकरण की सिफारिश की। 1997 में, नरसिम्हन समिति 2 ने निजीकरण की सिफारिश की। 1999 में वर्मा कमेटी आई। इसने निजीकरण की सिफारिश की। 1999 में के.वी. कामथ कमेटी आई। उन्होंने कहा कि तीन बैंकों को बंद करना होगा और फिर हमें निजीकरण के लिए जाना होगा। 2000 – वाजपेयी की सरकार 13 महीने चली। इसने सरकार की बैंकों में पूंजी को 33% तक कम करने के लिए संसद में एक विधेयक लाया और 67% निजी पूंजी की अनुमति दी। यानी निजीकरण। यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन (UFBU) के नेतृत्व में हम 15 सितंबर 2000 को हड़ताल पर चले गए। सभी कर्मचारियों ने और अधिकारियों ने और सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन किया और अंततः सरकार गिर गई और बिल भी समाप्त हो गया। वह 2000 में था।

फिर उसके बाद 2006 में तारापोर कमेटी ने निजीकरण की सिफारिश की, अधिक खुलापन और उदारीकरण। 2007 में रघुराम राजन समिति, 2008 में अनरुल होडा समिति, 2013 में रिजर्व बैंक टास्क फोर्स समिति, 2014 में नचिकेत मोर समिति, 2014 में फिर से पी जे नायक समिति। फिर से वे और सुधार चाहते थे।
फिर 2015 में ज्ञान संगम। मोदी ने खुद आकर बैंकों को सुधारने का जादुई फॉर्मूला दिया। और 2017 में हमें FRDI Bill मिला। इसलिए अब उन्होंने एक विधेयक लाने का फैसला किया है। मुझे नहीं पता, वर्तमान सत्र में 3-4 दिन हैं। उन्होंने एजेंडे में सूचीबद्ध किया है, बैंकों के निजीकरण के लिए बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक। इसलिए बैंकों पर लगातार हमले हो रहे हैं, लोगों की बचत पर लक्षित हमले हो रहे हैं। यह निजीकरण का खतरा है।

खतरा इतना ही नहीं कि कोई मालिक बन जाता है, वह जनता के धन का मालिक बन जाता है। आज सभी सरकारी बैंकों की कुल पूंजी लगभग 4 अरब डॉलर है। यह लगभग तीस हजार करोड़ है। लेकिन हम लोगों के पैसे से निपट रहे हैं। अकेले सरकारी बैंकों में यह करीब एक लाख करोड़ है। तो सिर्फ तीस हजार करोड़ की पूंजी और आपको जनता का बहुत बड़ा धन पर कब्ज़ा हो जाता है।
तो यह बैंकों या बीमा के निजीकरण का विशेष खतरा है। हम जनता के बड़े धन का संभालते हैं। तो स्वाभाविक रूप से यह बैंकिंग उद्योग पर हमला है और यह बैंक कर्मचारियों के लिए लड़ने के लिए है, इस प्रकार से उसे नहीं देखा जा सकता है।
निस्संदेह लोग लड़ते हैं और विशेष रूप से AIBEA में हमें बहुत गर्व है कि हमने राष्ट्रीयकरण के लिए लड़ाई लड़ी। हमने राष्ट्रीयकरण हासिल किया, हमने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की सफलता के लिए काम किया। इसलिए आज हमें विशेष रूप से बहुत गर्व है कि यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस, यह केवल चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी नहीं हैं, न कि केवल लिपिक कर्मचारी हैं। आज युनाइटेड फोरम में हम कर्मचारी हैं, अधिकारी हैं, वरिष्ठ अधिकारी हैं, शाखा प्रबंधक हैं – ये सभी हैं। इसलिए मुझे यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस पर बहुत गर्व है। खासकर बैंक अधिकारियों की ट्रेड यूनियन का योगदान। मैं इसे रिकॉर्ड करना चाहता हूं क्योंकि यह आसान नहीं है।

हम दो दिन पहले हड़ताल पर गए थे। सरकारी जानकारी के मुताबिक इसमें करीब 80% से 85% तक की भागीदारी थी। बैंकों में 80% से 85% भागीदारी यानि 100% है। क्योंकि हम कुछ वरिष्ठ अधिकारियों, सुरक्षा लोगों से अपेक्षा नहीं करते हैं। तो अधिकारियों, प्रबंधकों सहित 100% लोग हड़ताल पर चले गए। कई शाखाएं बंद हो गईं। तो यह बैंकों में एक अनूठा संघर्ष चल रहा है, बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच यूनाइटेड फोरम की ओर से मजबूत एकता के लिए धन्यवाद। हम वह करेंगे। अगर सरकार निजीकरण जारी रखती है तो हम फिर से लड़ेंगे।
लेकिन मुझे लगता है कि हमें संघर्ष को केवल बैंकिंग यूनियनों के गलियारों से आगे बढ़ाना होगा और वहां AIFAP हमारे संघर्ष के संदेश को लोगों के अधिक वर्गों तक ले जाने में हमारे लिए बहुत उपयोगी और सहायक होने जा रहा है, क्योंकि लाभार्थियों को जुटाना है, लोगों को जुटाना होगा, बैंक में पैसे बचानेवालों को जुटाना होगा, देश की अर्थव्यवस्था दांव पर है। यह सब बातें हैं। हम अपना काम करेंगे, लेकिन मैं आप सभी के समर्थन की अपील करता हूं।

मैं AIFAP, कॉमरेड मैथ्यू और वहां मौजूद सभी लोगों का बहुत आभारी हूं। इस हड़ताल आदि में हमारे संघर्ष का बहुत मुखर समर्थन है, लेकिन हम आगे एक साथ काम करना चाहते हैं और समन्वित कामकाज के इस क्षेत्र का विस्तार करना चाहते हैं। और मैं यह भी आश्वस्त कर सकता हूं कि जहाँ मैं आप सभी का समर्थन मांगता हूं, हम समर्थन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, किसी भी क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र में हड़ताल आदि में सक्रिय भागीदारी सहित समर्थन। हम कोयले की बात कर रहे हैं, हम बिजली, परिवहन, बीमा आदि की बात कर रहे हैं। संघर्ष में बैंक कर्मचारियों को भी शामिल करके हमें बहुत खुशी होगी।

हम पहले ही 23-24 फरवरी को हड़ताल का आह्वान कर चुके हैं। इस तरह से श्रमिकों के लिए भविष्य और अधिक चुनौतीपूर्ण होने वाला है क्योंकि केंद्र में सरकार की नीतियां बहुत स्पष्ट हैं। यह दाईं ओर बढ़ रहा है। जाहिर है कि मजदूरों, ट्रेड यूनियनों पर हमले होंगे, जो अब बहुत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। इसलिए जब वे अपने हमलों को मजबूत करने की कोशिश करते हैं, तो हमें एकजुट होकर लड़ना होगा। मैं आपके सहयोग के लिए आपका धन्यवाद करता हूं और इस अवसर के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं। शुक्रिया।

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