मेडिकल शिक्षा के निजीकरण का स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव

लोक राज संगठन के उपाध्यक्ष डॉ. संजीवनी जैन द्वारा

COVID-19 महामारी ने सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित एक मजबूत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित किया है। महामारी ने देश में डॉक्टरों और नर्सों की भारी कमी को भी उजागर किया है। समय आ गया है कि निजी स्वास्थ्य देखभाल और निजी मेडिकल शिक्षा को भी बढ़ावा देने की नीति को उलट देने की मांग की जाए। केवल यही हमें वर्तमान और भविष्य में इसी तरह की महामारी का सफलतापूर्वक सामना करने और सभी के लिए सस्ती स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने में सक्षम बनाएगा।

कोविड -19 महामारी ने बहुत ही स्पष्ट रूप से उस कहर को प्रकट किया जो निजीकृत स्वास्थ्य सेवा ने भारत के लोगों पर बरपा है। असंख्य लोगों की मृत्यु हो गई क्योंकि वे इलाज का खर्च नहीं उठा सकते थे जबकि अन्य लोगों ने देखा कि निजी अस्पतालों और दवा कंपनियों ने लाभ के लालच में अपने जीवन की बचत का सफाया कर दिया।

भारत स्वास्थ्य देखभाल पर सबसे कम प्रति व्यक्ति सरकारी खर्च करने वाले देशों में से एक है, और इसकी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, गरीब देशों को ध्यान में रखते हुए भी, दुनिया में सबसे खराब स्वास्थ्य सेवाओं में से है। देश में डॉक्टरों की संख्या WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) द्वारा निर्धारित मानदंड से काफी कम है, हालांकि बड़ी संख्या में युवा आजीविका के अच्छे स्रोतों की तलाश में हैं। समस्या बहुत ही बुनियादी स्तर पर शुरू होती है, क्योंकि बड़े पैमाने पर निजीकृत स्वास्थ्य देखभाल के साथ-साथ मेडिकल शिक्षा का भी बड़े पैमाने पर निजीकरण किया गया है।

निजीकृत मेडिकल शिक्षा के कारण, निजी मेडिकल कॉलेजों के छात्रों और उनके माता-पिताओं को पढाई की लागत को पूरा करने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। यह सच है कि जिस प्रकार परिवहन, बिजली इत्यादि जैसी अन्य आवश्यक सेवाओं के मामले में हुआ है, निजीकृत मेडिकल शिक्षा के कारण भी समाज के बाकी हिस्सों को एक भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

डॉक्टरों की कमी कोविड महामारी के दौरान बहुत प्रखरता से महसूस हुई, वैसे तो इस कमी की समस्या हर वर्ष बढ़ती ही रही है और हमारे देश की मेडिकल शिक्षा जिस प्रकार से संगठित की गयी है, यह कारणों में से एक है। डॉक्टरों को अपेक्षित संख्या में प्रशिक्षित करने के लिए सरकार को कई और मेडिकल कॉलेज बनाने की जरूरत है। ऐसा करने के बजाय, लोगों की जरूरतों के अनुसार मेडिकल शिक्षा को आयोजित करने का अपना आवश्यक कर्तव्य निभाने के बजाय, उसने बड़े पैमाने पर इसके निजीकरण को बड़ावा दिया है। दूसरे शब्दों में, मेडिकल शिक्षा को आवश्यक सेवा से एक व्यवसाय में बदल दिया गया है, जिसमें मुनाफ़ा सबसे महत्वपूर्ण है। इन मेडिकल शिक्षा कॉलेजों को कम से कम लागत के साथ शुरू किया जाता है, यह देखते हुए कि कम लागत की वजह से कॉलेज संस्थापक पर कोई आँच ना आए। अब हमारे सामने भयानक दृश्य है जिसमें मेडिकल कॉलेज बिना बुनियादी ढांचे व उपकरणों तथा बिना ही संलग्न अस्पतालों के ही शुरू कर दिए गये हैं! MCI (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के ढीले नियमों के कारणवश बिना उचित बुनियादी ढांचे तथा पर्याप्त संख्या में मरीजों के बिना ही प्रमाणीकरण प्राप्त हो जाता है। दूसरे किसी भी व्यापार की तरह, माल (इस मामले में मेडिकल शिक्षा) की कीमत इतनी अधिक रखी जाती है जितनी संभवतः खरीददार, यानी मेडिकल छात्रों से मालिक ऐंठ सकता है।

लेकिन हम अपनी इस कहानी में बहुत आगे चले गए हैं! एक डॉक्टर बनने की तमन्ना रखने वाले छात्र के लिए परेशानियों की शुरुआत बहुत कम उम्र से ही शुरू हो जाती है। जो लोग MBBS का अध्ययन करना चाहते हैं उन्हें राष्ट्रीय योग्यता परीक्षा, NEET, में बहुत उँचा स्थान प्राप्त करना होता है (जो लोग आयुर्वेद, होम्योपैथी, सिद्ध या दंत चिकित्सा में जाना चाहते हैं, उन्हें भी इस परीक्षा के माध्यम से योग्यता प्राप्त करना होता है)। 2019 में, भारत में 529 कॉलेजों में 70928 MBBS सीटें थीं। इनमें से 269 सरकारी कॉलेजों में 35688 सीटें थी, जबकि शेष 260 निजी क्षेत्र के कॉलेजों में 35290 थी। 14 लाख से अधिक छात्र NEET की परीक्षा में शामिल हुए, जिसका मतलब है कि प्रत्येक 200 छात्रों में से केवल 1 छात्र ही MBBS में दाखिला पा सका!

ज्यादातर ये वो भाग्यशाली लोग थे जिन्होंने परीक्षाओं के लिए प्रशिक्षित होने हेतु लाखों रुपये खर्च किए थे। विफल उम्मीदवारों ने भी एक बहुत बड़ी कीमत चुकाई, क्योंकि उनमें से ज्यादातर छात्रों ने भी लाखों खर्च किये थे लेकिन उसके बावजूद भी असफलता हाथ लगी थी। प्रतियोगिता में सफल होने की प्रतिस्पर्धा इतनी ज़्यादा है कि एक सरकारी कॉलेजों में प्रवेश कोचिंग बूस्टर डोज के बिना असंभव है! वास्तव में, शिक्षा का निजीकरण मेडिकल-पूर्व चरण से ही शुरू हो जाता है। यह प्रतिस्पर्धा NEET लागू होने से पहले भी उतनी ही प्रबल थी। 12वीं की बोर्ड परीक्षा में उल्लास व अवसाद के बीच का अंतर मात्र 1 अंक ही हो सकता था। अतः निजी प्रशिक्षण, या तो सामूहिक कक्षा के रूप में या व्यक्तिगत रूप से (जो अधिक महंगा है) गंभीर उम्मीदवारों के लिए लगभग अनिवार्य हो गया था।

यह स्पष्ट है कि आपकी पैसे खर्च करने की क्षमता यह निर्धारित करती है कि मेडिकल शिक्षा कौन प्राप्त कर सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले छात्र और भी प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करते हैं। अधिकांश जनता की भीषण ग़रीबी, बुरी पाठशालाएँ, बिजली का व्यवधान, जो वहन कर सकते हैं उनके लिए भी प्रशिक्षण शिक्षा का अभाव, कुल मिलाकर ग्रामीण छात्रों के खिलाफ एक षड्यंत्र जैसा लगता है। अतः ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की कमी आश्चर्यजनक तो नहीं है।

एक बार जब छात्र एक सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रवेश प्राप्त कर लेता है, तो उसकी परेशानी खत्म नहीं होती है, क्योंकि हर जगह सरकारी कॉलेज शिक्षा भी सस्ती नहीं है! भारत में मेडिकल शिक्षा का वार्षिक शुल्क सरकारी कॉलेजों में 15,000-80000 रुपये के बीच तथा निजी मेडिकल कॉलेजों में 100,000 रुपयों तक हो सकता है! इस प्रकार इस स्तर तक ही, कुछ छात्र सरकारी कॉलेजों की तुलना में 6-7 गुना अधिक भुगतान कर चुके होते हैं!

भारत एकमात्र ऐसा देश है जो मेडिकल सीटों की बिक्री की अनुमति देता है। निजी कॉलेजों में चंदे पर आधारित दाखिले की अनुमति है। कई मेडिकल कॉलेज अवैध रूप से प्रतिव्यक्ति शुल्क भी लेते हैं जो पच्चीस लाख और एक करोड़ रुपये के बीच कहीं भी हो सकता है। भारत में कितने लोग इस भार को बर्दाश्त कर सकते हैं? हमने अभी तक अतिरिक्त खर्चों की तो बात ही नहीं की है – किताबें, अन्य उपकरण, छात्रावास या बाहर से आए छात्रों का रहने का खर्च, परिवहन लागत आदि।

अध्ययन और इंटर्नशिप सहित एक MBBS की डिग्री को पाने में पांच साल लगते हैं। तत्पश्चात यदि कोई डॉक्टर स्नातकोत्तर (डिग्री के पश्चात) शिक्षा लेकर विशेषज्ञ बनना चाहता है, तो उसे NEET-PG के लिए अर्हता प्राप्त करना होता है। यह परीक्षा भी आसान नहीं है। 2019 में NEET-PG में, कुल 1,43,148 उम्मीदवारों ने पंजीकरण किया था जिसमें से 79,633 उम्मीदवार सफल हुए। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उन्हें प्रवेश मिला! 2019 में 10,821 मास्टर ऑफ सर्जरी (MS) सीटें, 19,953 डॉक्टर ऑफ मेडिसिन (MD) सीटें और 1,979 पीजी डिप्लोमा सीटें 6,102 सरकारी, निजी, अनुमानित और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में थीं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि 32,753 छात्र ही दाखिला पा सके हैं। इसका मतलब है की पंजीकृत छात्रों में से 25% अथवा सफल छात्रों में से आधों को ही दाखिला मिल सका! यही कारण है कि कुछ डॉक्टर सिर्फ अध्ययन करने के लिए ही समय निकालते हैं। और इस स्तर की तैयारी के लिए कोचिंग क्लासेस भी हैं!

सरकारी और निजी क्षेत्र की सीटों के बीच फीस में अत्यधिक अंतर होने के कारण कुछ सफल डॉक्टर दाखिला ही नहीं लेते है। वे फिर से प्रयास करना पसंद करते हैं। सरकारी कॉलेजों में छात्रवृत्ति या वज़ीफ़े दिए जाते हैं, जबकि निजी कॉलेजों में छात्र लूटे जाते है।

विश्वास करो या न करो, स्नातकोत्तर सीटों की नीलामी, भारत में, सरे-आम की जाती है और उच्चतम बोली लगाने वाले को दाखिला मिलता है! सितंबर 2013 में, ऐसी ही नीलामी के बारे में एक रिपोर्ट छपी थी। चेन्नई के प्रमुख कॉलेज में एक MD (रेडियोलॉजी) सीट की नीलामी 4 करोड़ रुपये और बैंगलोर कॉलेजों में 3 से 3.5 करोड़ रुपये के बीच हुई थी। सफल बोलियां ऑर्थोपेडिक्स और त्वचाविज्ञान के लिए एक और डेढ़ करोड़ रुपये के बीच थी, जबकि पीडियाट्रिक्स के लिए एक सीट 1.6 करोड़ रुपये में बिक गयी।

स्नातकोत्तर (PG या डिग्री प्राप्त) मेडिकल छात्र अर्हता प्राप्त डॉक्टर होते हैं। वे अपनी आगे की शिक्षा के दौरान विभिन्न अस्पतालों में “रेसिडेंट (निवासी) डॉक्टरों” के रूप में कार्य करते हैं। हाल के दिनों में उनकी हालत और भी खराब हो गई है।

रेसिडेंट डॉक्टर, अकसर हद से बहार अत्यधिक काम करते हैं और कम वेतन प्राप्त करते हैं। वे रोगियों की अथक देखभाल करने के लिए जिम्मेदार हैं, अक्सर भोजन और नींद का त्याग करते हैं। विशेष रूप से महामारी के दो वर्षों के दौरान, उन्हें, अन्य मेडिकलकर्मियों के साथ, बहुत कुछ झेलना पड़ा, बिना अवकाश के लगातार 18 घंटे तक काम करना पड़ा, खाने-पीने की उचित व्यवस्था बिना। महामारी के दौरान उनमें से कइयों को बहुत देर से या कम वेतन भी मिला! हम जानते हैं कि यह इस के बावजूद था कि महामारी ने पूरे मेडिकल कार्यबल से कई सारे बीमार हुए और अनेक काम के दौरान चल बसे।

और तो और, सरकार ने पीजी प्रथम वर्ष के छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया को पूरी तरह से विफल कर दिया और देश भर में 50,000 से अधिक रिक्तियां महीनों से नहीं भरी गईं, जिस की वजह से उन्हें और कष्ट झेलने पड़ें। चूंकि प्रथम वर्ष में पीजी के छात्र मेडिकल कर्मचारियों की संख्या का लगभग एक तिहाई हैं, इससे दूसरों पर बोझ की एक असहनीय वृद्धि हुई है।

देश भर में कई बार रेसिडेंट डॉक्टरों सहित मेडिकलकर्मियों के पास हड़ताल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वास्तव में, भारत भर के रेसिडेंट डॉक्टर – दिल्ली, राजस्थान, यूपी, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पिछले साल के अंत में एक बड़ी हड़ताल पर चले गए।

यह इसी बात का प्रमाण है कि सरकार को मेडिकल छात्रों सहित मेडिकल कर्मचारियों के प्रति बारे में कोई चिंता नहीं है।

एक बार जब कोई व्यक्ति PG योग्यता प्राप्त कर एक विशेषज्ञ बन जाता है, तो अपना क्लिनिक स्थापित करने के लिए भी पूंजी की ज़रूरत पड़ती है। चूंकि सरकारी क्षेत्र में डॉक्टर की नौकरियां पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इसलिए निजी हेल्थकेयर “उद्योग” ही दूसरा महत्वपूर्ण विकल्प रह जाता है।

तो क्या यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत में मेडिकल उपचार बेहिसाब महंगा है और ज्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है? कोई बस केवल कल्पना ही कर सकता है कि उन डॉक्टरों ने कितनी विवशता में अपनी यह डिग्री हासिल की है! इस हालात में रोगी उनके लिए ज्यादा मायने रखेंगे या पैसा?

भारत में मेडिकल शिक्षा का निजीकरण एक नई घटना नहीं है और केंद्रीय और राज्य स्तरों पर सत्ता में आने वाले विभिन्न पक्षों के आशीर्वादों से मिली-भगत से फल-फूल रहा है। पहला निजी कॉलेज 1953 में स्थापित किया गया था और उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत नब्बे के दशक में इसने वास्तव में रफ़्तार पकड़ ली। शिक्षा के मामले में, बड़े राजनीतिक दलों के कई दिग्गज नेता स्वयं “शिक्षा सम्राट” बन गए हैं।

जब भारत में मेडिकल शिक्षा इतनी महंगी है, तो क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि डॉक्टर बनने के इच्छुक विदेशों में अपनी शिक्षा पूरी करना चाहे? यदि उन्हें वैसे भी भारत में ऋण लेना ही है, तो वे विदेशों में अध्ययन को प्राथमिकता देते हैं जहां पर शिक्षा और पढाई के हालात अधिक अनुकूल हैं। वर्ष 2014-15 तक, अमेरिका, कॅनडा , यूके, ऑस्ट्रेलिया, चीन, न्यूजीलैंड और जर्मनी में मेडिकल शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या 2.5 लाख पार कर गई थी! और जैसा कि हमने देखा है, ऐसे कई छात्र हैं जो डॉक्टर की पढाई कर वापस ही नहीं आए और हमारे देश के लोगों को उनकी मेडिकल शिक्षा का लाभ ही नहीं मिला! यूके की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा भारतीय तथा साथ ही उपमहाद्वीप में अन्य देशों से आये हुएं डॉक्टरों और नर्सों पर भी काफ़ी हद तक निर्भर है।

भारतीय छात्र रूस, किर्गिस्तान और यूक्रेन में भी जाते हैं क्योंकि इन देशों में मेडिकल शिक्षा भारत की तुलना में सस्ती है। इसी कारण से वे फिलीपींस, कैरीबियाई, नेपाल, बांग्लादेश और पोलैंड जैसे देशों में भी जाते हैं।

दुनिया के कई मुल्क हैं जहां शिक्षा मुफ्त है। भारत सरकार इस देश की जनता को मुक्त शिक्षा प्रदान करने की सोचती भी नहीं है।

कोविड -19 महामारी ने एक बार फिर से हमारा ध्यान सार्वजनिक रूप से निधिबद्ध मजबूत हेल्थकेयर सिस्टम (स्वास्थ्य सेवा) की ओर केंद्रित कर दिया है। महामारी ने देश में डॉक्टरों और नर्सों की गंभीर कमी पर भी प्रकाश डाला है। वक्त आ गया है जब हमें निजी स्वास्थ्य देखभाल और मेडिकल शिक्षा को बढ़ावा देने की नीति को बदलने की मांग करनी होगी। केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल और मेडिकल शिक्षा ही हमें वर्तमान और भविष्य में इसी तरह की महामारी का सफलतापूर्वक सामना करने और सभी को सस्ती स्वास्थ्य सेवाएँ सुनिश्चित करने के काबिल बनाएगा।

 

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