श्री गिरीश भावे, संयुक्त सचिव, कामगार एकता कमिटी (KEC)
1991 की निजीकरण और उदारीकरण द्वारा भूमंडलीकरण की नीति लागू करने के बाद सत्ता पर आई हर एक सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र का अस्तित्व मिटाने की दिशा में काम किया है। पूंजीपतियों के धनबल पर जीत के आई हुयी हर एक पार्टी की सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों एवं प्रतिष्टानों को निजी मालिकों को कौड़ी के दाम बेचने के लिए तरह तरह के बहाने पेश किये है।
1991 के दशक में निजीकरण की ओर आगे बढ़ने के लिए जनता का मत बहलाने के लिए अत्यंत शिस्तबद्ध तरीके से धीरे धीरे कदम उठाये गए। पूंजीपतियों के इशारे पर चल रही सरकार ने सबसे पहले कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को रणनीतिक और गैर-रणनीतिक कंपनियों में बांटा जायेगा, और फिर गैर-रणनीतिक सार्वजनिक क्षेत्र में से मुनाफा ना बनानेवाली कंपनियों को ही निजी हाथों में सौपा जायेगा।
इससे सार्वजानिक कंपनियों में यह होड़ लग गयी की वे लगातार मुनाफा बनाते रहे। मुनाफा दिखाने के लिये जो जनविरोधी कदम उठाये गये उनके बारे में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में कार्यरत यूनियनों ने बारबार जिक्र किया है। पर आज हमें यह सोचना होगा की क्या वाकई में सार्वजनिक क्षेत्र का उद्दयेश मुनाफा बनाना होना चाहिए ?
आज रेलवे, बिजली, सड़क परिवहन, दूरसंचार, बैंकिंग और इन्शुरेंस जैसी सार्वजनिक कंपनिया देश के कोने कोने तक फैली हुयी हैं। गांवों तथा पहाड़ों तक यह आज सेवा प्रदान कर रही हैं। इन जगहों पर सेवा प्रदान करना आसान नहीं हैं। काफी मुश्किलों का सामना करने के बावजूद भी इन सेवाओं को प्रदान करने से दरअसल घाटा ही होता हैं। अगर इन सेवाओं का निजीकरण हुआ तो केवल शहरी इलाकों में ही ऐसी सेवाएँ प्रदान की जाएंगी। कोई भी निजी मालिक का उद्दयेश ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना ही होता है। कोई भी निजी मालिक दूरदराज के इलाकों में घाटा सहकर सेवा देना नहीं चाहेगा।
हमारे देश में सदियोंसे यह मान्यता है कि जिसका भी राज हो, उसने प्रजा की सुख और सुरक्षा सुनिश्चित करने को प्राथमिकता देनी चाहिये, यह दूसरा महत्वका मुद्दा है। राज पर जो है वह यह उत्तरदायित्व अगर नही निभाता तो उसे पद से हटाने का अधिकार एवं जिम्मेदारी प्रजा की होती है। सरकार को हमसे टैक्स वसूल करने का अधिकार इसीलिए है कि वह बिजली, रेलवे, दूरसंचार, बैंकिंग और इनशुरेंस जैसी सभी मौलिक आवश्यक सेवाएं मुनासिब दामों पर उपलब्ध कराये। इन्हें सेवा की तरह देखा जाना चाहिए, न कि एक मुनाफा कमाने का जरिया।
हम कर्मचारियों को यह नहीं देखना चाहिए कि ये सार्वजनिक सेवाएं कितना मुनाफा कमाती हैं, बल्कि यह देखना चाहिए कि यह सेवाएं जनता के लिए कितनी आवश्यक हैं। कितने लोगों तक यह सेवाएं पहुँच चुकी हैं। यह भी देखना जरुरी है कि अगर यह सेवा निजी हाथों में चली गयी तो कितने सारे लोग इन सेवाओं से वंचित हो जायेंगे। मिसाल के तौर पर जब हम कोरोना महामारी का सामना कर रहे थे तब सरकारी अस्पताल या निम-सरकारी अस्पतालों में ही कोरोना के मरीजों को दाखिल किया जा रहा था। बड़े बड़े निजी अस्पतालों ने अपने हाथ ऊपर कर लिये थे। कई बार बाढ़ या युद्ध के माहौल में जब फंसे लोगों को एयरलिफ्ट करने की आवश्यकता होती हैं तो कोई निजी एयरलाइन्स मदद के लिए आगे नहीं आती है। इन सब से यही देखने को मिलता है कि मौलिक सेवाओं का सार्वजनिक क्षेत्र में होना हम सब लोगों के लिए कितना आवश्यक है।
हमें एक और बात का ध्यान रखना होगा कि यह पूरा सार्वजानिक क्षेत्र हमारे पैसे से ही बना है। हम आज बाजार में जो भी खरीदते हैं, हम उस पर टैक्स भरते हैं। केवल वडा पाव खाकर गुजारा करनेवाला गरीब मेहेनतकश भी आज जी एस टी के रूप में टैक्स भर रहा है। इस टैक्स के पैसे से ही यह सार्वजनिक क्षेत्र बना है। इसलिये यह हम सबकी दौलत हैं। हमारे खून और पसीने से बनी संपत्ति सरकार कौड़ी के दामों में निजी मालिकों को बेच रही है। हम हमेशा यही चाहते हैं कि जनता के पैसे से बनी संपत्ति जनता के कल्याण के लिए इस्तेमाल हों, मुट्ठीभर पूंजीपतियों की तिजोरियों को भरने के लिए नहीं।
इसीलिए हमें कभी भी इस बहस में नहीं पड़ना चाहिए कि हमारी सार्वजनिक सेवा कितना मुनाफा बनाती है। हमें उनसे यह बहस करनी है कि यह सेवा हमारे देशवासियों के लिए कितनी आवश्यक हैं। निजीकरण के पक्ष में दिए जाने वाले हर तर्क को हमें परखना होगा। हमें हमारे आत्मजों, दोस्तों और हमारे उपभोक्ताओं को यह समझाना होगा। बैंक कर्मचारी और बिजली कर्मचारी निजीकरण विरोधी संघर्ष में उपभोक्ताओं को जोड़ने की दिशा में कदम उठा रहे हैं। अन्य क्षेत्रों के कर्मचारियों ने भी इस दिशा में काम करना चाहिए!