परिवर्तनकारी बदलाव, जमीनी हकीकत पर आधारित नहीं – विद्युत क्षेत्र में सुधार

के अशोक राव, संरक्षक, ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन (एआईपीईएफ)
आज बिजली को एक मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए न कि केवल एक उत्पाद।
– भारत सरकार राष्ट्र को पहले यह यकीन कराये कि निजीकरण से सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा और प्रतिस्पर्धा से घरेलू उपभोक्ता को लाभ होगा।
– कृषि की तरह, बिजली भी एक बहुत महत्वपूर्ण और मूलभूत जरूरत है। भले ही भारत सरकार, संसद में अपने बहुमत का उपयोग करके, कानून को आगे बढ़ाए, इसका प्रतिरोध निरंतर जारी रहेगा जैसा कि देश ने हाल ही में चार कृषि कानूनों के खिलाफ होता देखा है।

(लेख का हिंदी अनुवाद)

आज बिजली को एक मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए न कि केवल एक उत्पाद। यह जीवन के हर पहलू में व्याप्त है और इंटरनेट के आगमन के साथ, बिजली अब एक विलासिता (लक्ज़री) नहीं बल्कि एक मूलभूत जरूरत है। इस हकीकत की रोशनी में, प्रश्न उठता है- कि बिजली एक उत्पाद है या एक सेवा है? यदि यह एक सेवा है, तो क्या यह एक आवश्यक सेवा है? इन सवालों के जवाब ही, बिजली क्षेत्र में, वर्तमान बाजार-आधारित विकास और/या निजीकरण की सीमाओं को निर्धारित करते हैं।
2003 में, बिजली कानून में बदलाव का एकमात्र उद्देश्य यह था कि राज्य-नियंत्रित “स्वायत्त” एकीकृत बिजली बोर्डों को एक बाजार और निवेशक के अनुकूल लेकिन एक “अस्पष्ट” ढांचा में परिवर्तित किया जाए|

विदेशी निवेश को हासिल करने के लिए बेताबी
भारत सरकार के बिजली मंत्रालय ने 15 जनवरी 1994 को एक पेपर तैयार किया जिसमें उसने कहा:
“इस तरह के निजी-निवेशकों को देश के शोषण के लिए नहीं, बल्कि देश को संसाधनों की कमी की समस्या से बचाने के लिए, बिजली क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दी गई है, अन्यथा यह समस्या, बिजली क्षेत्र और परिणामस्वरूप देश को, एक बहुत बड़े संकट में डाल कर शक्तिहीन बना सकती है … बिजली उद्योग में अगर निजी क्षेत्र को बिजली उत्पादन करने अनुमति नहीं दी जाती, तो हिंदुस्तान देश, निश्चित रूप से खुद को एक बड़े संकट और दुर्भाग्य की खाई में डुबो देगा, ऐसा संकट, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।”
तब और अब में अंतर केवल इतना ही है कि इस क्षेत्र में बड़ी रकम को आकर्षित करने में, नाकामयाबी को देखते हुए, उन्ही भावनाओं को दबे-स्वर में बोला जाता है, जबकि “सुधारों” को लागू करने की दिशा में न तो कोई ढील दिखती है न ही कोई बदलाव देखने में आता है।

ताप-विद्युत (थर्मल पॉवर) में भारतीय निजी निवेश
इस क्षेत्र में पहला बड़ा निवेश, 1992 में, अमेरिका-स्थित एनरॉन कंपनी द्वारा किया गया था, जिसने दाभोल, रत्नागिरी महाराष्ट्र में 2,184 मेगावाट क्षमता वाला और नेचुरल गैस (एलएनजी) द्वारा संचालित थर्मल पावर स्टेशन का निर्माण किया था। सितंबर 2015 में, कंपनी पर लगभग 10,500 करोड़ रु. का कुल कर्ज था। घाटे में चल रहे इस प्लांट को पुनर्जीवित करने के लिए, आरजीपीपीएल, जो कि इस बिजली-संयंत्र की मालिक कंपनी थी, उसको दो अलग-अलग कंपनियों में विभाजित कर दिया गया – एक पावर (आरजीपीपीएल) कम्पनी और दूसरी, कोंकण एलएनजी प्राइवेट लिमिटेड (केएलपीएल) जिसमें एलएनजी से संबंधित सभी इकाईओं को शामिल किया गया. – एक बिजली संयंत्र का प्रबंधन करने के लिए और दूसरी एलएनजी के आयात का प्रबंधन करने के लिए। और इस तरह से एक निजी कंपनी को सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में बदला गया – और कम्पनी का भारी नुकसान और कर्जा, हिंदुस्तान के लोगों के हिस्से में आया जिसका भुगतान देश के लोगों द्वारा अभी भी जारी है
इस क्षेत्र में अगला सबसे बड़ा निजी-निवेश कोयले से चलने वाले बिजली स्टेशन हैं जो 90 के दशक के अंत में, हिन्दुस्तानी पूंजीपतियों द्वारा लगाये गए 34 स्टेशन थे। अगस्त, 2018 के अंत तक, इन प्लांट्स की स्थिति यह थी, कि “लगभग 30 स्ट्रेस्ड पावर एसेट्स (ऐसे प्लांट जो कर्जा चुकाने में असमर्थ हैं) के ऋणदाता उन्हें दिवालिएपन-अदालतों (बैंकरप्त्सी कोर्ट्स) में ले जायेंगे क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक के 12 फरवरी के सर्कुलर के अनुसार, समाधान के लिए 180 दिन की समय-सीमा, जो सोमवार को समाप्त हो गई और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस सीमा को और बढाने की इज़ाज़त नामंजूर कर दी,” फिर सितंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय रिजर्व बैंक के सर्कुलर पर रोक लगा दी, जिससे इन तनावग्रस्त बिजली परिसंपत्तियों के खिलाफ दिवालियापन-कार्यवाही शुरू करने से रोक दिया गया। इस बाधा को जैसे-तैसे दूर किया गया लेकिन वोह भी काफी नहीं थी। उनकी देनदारियां (जिनका भुगतान जरूरी है) सिर्फ राज्य के स्वामित्व-वाली पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन को हस्तांतरित कर दी गईं, पीएफसी द्वारा निजी-क्षेत्र को दिए गए ऋण का पचपन प्रतिशत धन, इस तरह से डूब गया। इसके विपरीत, सरकार द्वारा संचालित-परियोजनाओं की संपत्ति की गुणवत्ता अच्छी बनी रही।
इन 34 इकाइयों के लिए, अगली समस्या तब खडी हुई, जब जांच-निदेशालय (डीआरआई) ने उनके खिलाफ, उपकरण-आयात में अनियमितताओं के लिए लगभग 20 हजार करोड़ रुपये और कोयला-आयात में अनियमितताओं के लिए 30 हजार करोड़ रुपये का कारण-बताओ (शो-काज) नोटिस जारी कर दिया था। अभी तक कारण बताओ नोटिस को दोषी लोगों के लिए सजा में बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया गया है। इस पूरी निजीकरण की दर्दनाक कहानी के कुछ नतीजों में से एक, जिसका उल्लेख शायद ही कभी मिलता है, वह यह है कि चीन से किये गए उपकरणों का आयात, लाभ कमाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) की चार साल की उत्पादन क्षमता के बराबर था। इसका परिणाम – बीएचईएल भी घाटे में चली गई।
2005-06 में, उत्पादन के पैमाने को बढाने की जरूरतों को हासिल करने के लिए, जिससे उत्पादन की प्रति यूनिट लागत को कम किया जा सके, अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट्स (प्रत्येक प्लांट की क्षमता लगभग 4000 मेगावाट) लगाने की सुविधा प्रदान की गई थी। टाटा और अदानी जैसे बड़े पूजीपतियों ने सफलतापूर्वक ऐसे अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट्स (यूएमपीपी) लगाये। उन्होंने टैरिफ-आधारित टेंडर-बोली प्रक्रिया में बोलियां जीतीं। यह मान कर यह कॉन्ट्रैक्ट दिए गए कि स्वतंत्र बिजली-उत्पादक बाजार-जोखिम नहीं ले सकते हैं और उन्हें अपने उत्पादन को, राज्य विद्युत बोर्ड को दो धाराओं से निश्चित-राजस्व पर बेचना चाहिए – निश्चित या क्षमता शुल्क और परिवर्तनीय या ऊर्जा शुल्क। जुलाई 2012 में, इंडोनेशिया में कोयले की कीमतों में वृद्धि हुई और टैरिफ में वृद्धि की मांग की गई। अप्रैल, 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलेट-ट्रिब्यूनल-फॉर-इलेक्ट्रिसिटी (Aptel) के 2016 के एक आदेश को रद्द कर दिया, जिसने अदानी पावर और टाटा पावर को कॉन्ट्रैक्ट में निर्धारित शुल्क से अधिक शुल्क, मुआवजे के लिए लगाने की अनुमति दी थी। लेकिन फिर अक्टूबर, 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक समीक्षा याचिका में शीर्ष बिजली नियामक को बिजली खरीद-समझौतों (पीपीए) में बदलाव करने पर फैसला करने का निर्देश दिया। फैसले ने हकीकत में, बिजली शुल्कों को फिर से निर्धारित करने का मार्ग प्रशस्त किया। और अब 2021 में, खुली अदालत में सुनवाई के माध्यम से प्रतिपूरक (अतिरिक्त) शुल्क के प्रश्न पर फिर से विचार किया जाएगा।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कुल एनपीए (कर्जा चुकाने में असमर्थ) में से लगभग 6 लाख करोड़ रुपये बिजली क्षेत्र से हैं, विशेष रूप से ताप-विद्युत (थर्मल पॉवर) संयंत्रों से संबंधित हैं। गौर करने की जरूरत यह है कि क्या हकीकत यह नहीं है कि इस देश ने, वास्तव में निजी क्षेत्र को, कोयला-आधारित बिजली उत्पादन करने की इज़ाज़त देकर, खुद को, संकट और दुर्भाग्य की खाई में डुबो दिया।

सौर ऊर्जा के साथ अनुभव
सरकार का 2022 के लिए 20 GW क्षमता का प्रारंभिक लक्ष्य था, जिसे निर्धारित समय से चार साल पहले हासिल किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप 31 अगस्त 2021 तक देश की सौर-स्थापित क्षमता 44.3 GW हो गई थी। ग्लासगो में हाल ही में आयोजित COP 26-बैठक में, प्रधान मंत्री ने यह आश्वासन दिया कि अगले 8 साल और एक महीने (अर्थात 2030 तक) के भीतर, भारत में 500 GW गैर-जीवाश्म (रिन्यूएबल) बिजली-उत्पादन क्षमता का लक्ष्य हासिल किया जाएगा। 500 GW की गैर-जीवाश्म क्षमता, बिजली की अभी तक की कुल स्थापित क्षमता के 55% से अधिक होने की संभावना है। इस 500 गीगावॉट में से लगभग 105 गीगावॉट जलविद्युत, लघु-पनबिजली, पंप किए गए भंडारण, परमाणु और बायोमास से होने का अनुमान है। इस प्रकार, कुछ 400 GW की स्थापित बिजली-क्षमता, सौर-उर्जा और कुछ क्षमता पवन-उर्जा के द्वारा होगी।
सौर-ऊर्जा उत्पादन का विकास, ज्यादातर बिजली-खरीद समझौतों (पीपीए) द्वारा निर्धारित शर्तों पर आधारित होता है। कई राज्य सरकारें – जैसे आंध्र प्रदेश और पंजाब ने पीपीए (पॉवर परचेज कॉन्ट्रैक्ट्स) को निरस्त करने या संशोधित करने का, असफल प्रयास भी किया है। इस समय सौर-ऊर्जा की लागत घटकर 2.4 रु. प्रति यूनिट हो गयी है फिर भी गुजरात जैसे राज्य 15 रुपये प्रति यूनिट का भुगतान जारी रखे हुए है.

सौर-ऊर्जा-खरीद-समझौते की समस्याएं ये हैं:
• लगभग संपूर्ण सौर-ऊर्जा उत्पादन, आयात पर आधारित है (चीन सबसे बड़ा लाभार्थी है)। यदि भंडारण (storage) के लिए लिथियम-आयन बैटरियों को जोड़ा जाये तो आयात बिल और अधिक बढ़ जाएगा।
• वे लंबी अवधि के होते हैं – आम तौर पर 25 साल की अवधि। वे अनम्य हैं और उन्हें संशोधित नहीं किया जा सकता है।
• उनके पास अनिवार्य रूप से चलने की शर्त है। इसका मतलब है कि, उत्पादन की उनकी लागत की परवाह किए बिना, उन्हें खरीदना अनिवार्य है| इसका मतलब है कि सस्ते विकल्पों को बंद किया जाएगा।
• सौर ऊर्जा, स्वाभाविक रूप से, सूर्य की उपलब्धता के आधार पर रुक-रुक कर होती है। चूंकि बिजली की मांग, सूर्य की उपलब्धता पर निर्भर नहीं होती, इसलिए जब सूर्य उपलब्ध नहीं है तो किसी अन्य स्रोत को ऊर्जा प्रदान करनी पड़ती है। कोयला-बिजली स्टेशन हैं जो उर्जा के इस उतार-चढ़ाव को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किये जातें है। इसके लिए कोयला-बिजलीघरों को बार-बार बैक- डाउन और रैंप-अप करना पड़ता है। यह एक महंगा उपाय है। और उन्हें न केवल यह अतिरिक्त लागत वहन करनी पड़ती है, बल्कि अपने उपकरणों पर संभावित जोखिम भी उठाना पड़ता है। अब तक इसका खर्चा और जोखिम, सार्वजनिक क्षेत्र को ही भुगतना पड़ रहा है।
ग्रिड प्रबंधन और ग्रिड स्थिरता के संबंध में शायद ही कोई गंभीर अध्ययन किया गया है। यह विशेष रूप से गंभीर मुद्दा है यदि और जबकि, नवीकरणीय (रिन्यूएबल) ऊर्जा कुल उर्जा-उत्पादन का 50% हिस्सा या उससे अधिक हो। और यही लक्ष्य अगले आठ साल और एक महीने में हासिल करने का वायदा किया गया है।
इसी तरह, सौर पैनलों या बैटरियों के जीवन-काल की समाप्ति के बाद, उनके उचित डिस्पोजल और रीसाइक्लिंग के बारे में भी कोई गंभीर अध्ययन या योजना अभी तक उपलब्ध नहीं है। सौर ऊर्जा से संबंधित उत्पादों में भारी-धातुएं होती हैं जिन्हें वर्तमान जल-शोधन प्रणाली द्वारा अलग नहीं किया जा सकता और इसलिए वे जल को भी दूषित करतें है और स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकतें है।

बिजली वितरण-प्रणालियों के निजीकरण के लिए बहुत जोर-शोर से प्रयास किये जा रहे है।
यह हकीकत कि विद्युत शक्ति संविधान में एक समवर्ती-विषय है, निजीकरण के प्रयासों में एक बड़ी बाधा बन गई है। 2014 के बाद से, कानून में बदलाव लाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। लेकिन वे विफल रहे हैं। संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में, सरकार एक विधेयक को पारित कराने की कोशिश कर रही है|
साथ ही साथ, भारत सरकार, कैश-रिच या मालामाल पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन (पीएफसी) से ऋण प्राप्त करने के लिए तमाम शर्तों और चेतावनियों के द्वारा, राज्य सरकारों को, केंद्र सरकार, अपने मंसूबों को हासिल करने की योजनाओं के साथ सहमति जताने पर मजबूर कर रही है. (अब ग्रामीण विद्युतीकरण निगम को भी पीएफसी की सहायक कंपनी बनाया जा रहा है).
मौजूदा समय में बिजली-वितरण प्रणालि का निजीकरण करने पर जोर दिया जा रहा है, इस उम्मीद के बहाने कि इससे खुदरा-बिक्री तक में बेहतर दक्षता और प्रतिस्पर्धा के युग की शुरुआत होगी।
सबसे पहले, कुछ बुनियादी तथ्य:
• बिजली की लागत का अस्सी प्रतिशत हिस्सा (या कहीं, इससे भी अधिक) बिजली-उत्पादन में लगी लागत है। इसलिए दक्षता के कारण लागत को कम करने के लिए केवल 20% हिस्सा ही बचता है।
• राज्यों को, बहुत ही नुकसानदेह बिजली-खरीद-समझौतों (पी पी ऐ) तक को भी संशोधित न करने के लिए मजबूर किया जाता है। कई बिजली खरीद-समझौतों में रखी गई शर्तों के तहत, दिस्कोम्स (DISCOMS यानि की वितरण कम्पनियों) को, एक निश्चित लागत का भुगतान करना जारी रखने के लिए मजबूर किया जाता है, भले ही वे बिजली की एक भी इकाई का उपभोग न करें।
• उपभोक्ताओं का एक बड़ा हिस्सा, सेवा करने की लागत का भुगतान नहीं करता है और यह हिस्सा बढ़ता है क्योंकि वो चुनाव और राजनीतिक प्रतिद्वंदिता से जुडा हुआ है। डी-रेगुलेशन और ओपन-एक्सेस ने क्रॉस-सब्सिडी को जारी रखना मुश्किल बना दिया है।
• निवेश की कमी और मांग में भारी वृद्धि के कारण, तकनीकी कारणों से ट्रांसमिशन (प्रेषण) में बिजली की क्षति में वृद्धि हुई है।
• पिछले कुछ वर्षों के दौरान, विशेष रूप से पीएफसी और आरईसी से उधार क़र्ज़ लेने में, तेजी से वृद्धि हुई है
इस हकीकत को दरकिनार करते हुए, भारत सरकार की धारणा है:
• • डिस्कॉम्स के सामने वित्तीय संकट, गलत पॉलिसीस और व्यवस्था में कमियों के कारण नहीं है, बल्कि पूरी तरह से प्रबंधन और उनके उपभोक्ताओं की लापरवाही के कारण है।
• • एक सुनियोजित प्लान के तहत, क्रॉस सब्सिडी और सब्सिडी को समाप्त किया जाना चाहिए। बिज़नस करने को आसान बनाने के लिए, क्रॉस सब्सिडी को समाप्त करना या कम करना आवश्यक माना जाता है। (अधिकांश बहुराष्ट्रीय-निगम बाजारों को बिज़नस के लिए और खोलने या उन पर कब्ज़ा करने के लिए, क्रॉस सब्सिडी के तरीकों का उपयोग करते हैं। अर्थशास्त्र में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह बताता हो कि क्रॉस सब्सिडी को खत्म करने या घटाने से व्यवसाय में आसानी होती है)
• • निजीकरण को सबसे अनुकूल शर्तों पर करने की आवश्यकता है ताकि नए मालिक लगभग एक साफ स्लेट के साथ शुरुआत कर सकें। मानक-बोली दस्तावेज या स्टैण्डर्ड बिडिंग डॉक्यूमेंट (एसबीडी) का प्रस्ताव है कि संपत्ति को शुद्ध-संपत्ति मूल्य (नेट एसेट वैल्यू) पर स्थानांतरित किया जाएगा और भूमि बहुत ही मामूली शुल्क पर प्रदान की जाएगी। एक अन्य प्रावधान यह भी है कि उत्तराधिकारी-इकाई को संचित नुकसान / अव्यवहार्य देयता से मुक्त एक स्वच्छ बैलेंस शीट प्रदान की जाएगी। यदि इन्ही शर्तों को मौजूदा DISCOMS को प्रदान की जायें, तो वे रातोंरात लाभदायक हो जाएंगे।
• • राज्य सरकारें, DISCOMS का प्रबंधन करने में सक्षम नही हैं। केंद्र सरकार का हस्तक्षेप, विनियमन और निरीक्षण आवश्यक है।
जिस तरह से बिजली के उत्पादन का निजीकरण बिलकुल असफल रहा है उसी तरह बिजली वितरण का निजीकरण का अनुभव भी अब तक पूरी तरह विफल रहा है। लगभग सभी शहरों में जहां निजीकरण का प्रयास किया गया था – उदहारण के लिए, जैसे बिहार में गया, समस्तीपुर और भागलपुर, उत्तर प्रदेश में कानपुर, मध्य प्रदेश में ग्वालियर, सागर और उज्जैन, महाराष्ट्र में औरंगाबाद और जलगाँव, झारखंड में रांची और जमशेदपुर – नियामक-फ्रेंचाइजी को रद्द करने के लिए रेगुलेटरी-कमीशन को मजबूर किया गया था। ओडिशा के मामले में, राज्य सरकार, अब एक नहीं, बल्कि निजीकरण के तीन असफल प्रयासों के बाद, एक बार फिर वापस इस क्षेत्र की प्रभारी है। मुंबई में जहां टाटा और/या रिलायंस (अब अदानी) के पास लाइसेंस हैं, वहां टैरिफ में वृद्धि हुई है, उपभोक्ताओं का विरोध और मुकदमेबाजी का सिलसिला बढ़ा है।, देश के सभी महानगरों में सबसे अधिक बिजली- शुल्क मुंबई में हैं। दिल्ली में इस समय कम टैरिफ हैं, लेकिन इसके साथ, बहुत बड़ी नियामक-संपत्तियां (रेगुलेटरी-एसेट्स) हैं – इसका मतलब यह है कि चूंकि यह संभव नहीं था कि टैरिफ में वृद्धि को लागू किया जाए, इस लिए, वृद्धि का प्रभाव, एक परिसंपत्ति (एसेट) के रूप में किया जाएगा जिसका जब भी संभव होगा तब भुगतान करना होगा।
इंग्लैंड और वेल्स में सुधारों के बारे में, विश्व बैंक के अध्ययन ने एक निष्कर्ष निकाला है,
“इंग्लैंड (यु के) में सुधारों का अंतिम उद्देश्य, इस क्षेत्र को सरकारी वित्त-पोषण (गवर्नमेंट फंडिंग) से हटाना और निजी क्षेत्र के संचालन की बढ़ती दक्षता और प्रतिस्पर्धा के दबाव के माध्यम से उपभोक्ताओं के लिए कीमतों को कम करना था। मोटे तौर पर कहें तो पहला उद्देश्य पूरा हो गया है, लेकिन दूसरा उद्देश्य अभी तक पूरी तरह से हासिल नहीं हुआ है।”
सारांश में, वितरण के निजीकरण की अनुमति तब तक नहीं दी जानी चाहिए जब तक कि निम्नलिखित चेतावनियों को संबोधित नहीं किया जाता है, अन्यथा इसका परिणाम केवल मुनाफे का निजीकरण और नुकसान का राष्ट्रीयकरण होगा:
• • सेवा की लागत का भुगतान न कर पाने वाले उपभोक्ताओं की समस्याओं का समाधान। विशेष रूप से सबसे कठिन मुद्दा यह है कि किसानों से क्या चार्ज करना चाहिए। जब तक नहर-सिंचाई की लागत और किसान के स्वामित्व वाले बोरवेल के बीच समानता नहीं होगी, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।
• • फर्जी, अवैज्ञानिक सूचकांक- सकल तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान (एटी एंड सी) – पर आधारित निजीकरण को रोका जाना चाहिए। (तकनीकी नुकसान, भौतिक विज्ञान के नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं और वाणिज्यिक नुकसान आपराधिक कानून द्वारा नियंत्रित होते हैं। उन्हें एक साथ मिला देना, केवल निजी संस्था के हितों की सेवा करने के लिए है – पूरी यंत्रणा में सुधार किये बिना जिससे तकनीकी नुक्सान को रोका जा सके, केवल मीटरिंग में निवेश द्वारा धन संग्रह में सुधार करके और सरकारी एजेंसियों से बकाया रकम की वसूली करके, नुक्सान में सुधार, केवल दिखाने के लिए है)
• • निम्नलिखित मुद्दों के संबंध में विश्लेषण किया जाना चाहिए और पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाना चाहिए:
• क्यों कई शहरों में नियामक (रेगुलेटर) को फ्रेंचाइजी को हटाना पड़ा और डिस्कॉम्स को वापस सिस्टम बहाल करना पड़ा (फ्रैंचाइजी के एक अध्ययन से पता चलता है कि इन एजेंसियों ने उपभोक्ता से पैसा इकट्ठा करते समय डिस्कॉम को भुगतान करने में चूक की है)
• इस बात की क्या गारंटी है कि ओडिशा तीसरी बार सफल होगा, जब कि वह पिछले दो बार निजीकरण के प्रयासों में विफल रहा है, एक बार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी और अगली बार एक भारतीय कंपनी को फ्रेंचाइजी बना कर ।

खुदरा-प्रतिस्पर्धा – किसे लाभ?
आइए पहले हम थोक-आपूर्ति में प्रतिस्पर्धा की जांच करें। ओपन एक्सेस के द्वारा, एक बड़े उपभोक्ता को, अलग-अलग डिस्कॉम के साथ सम्बन्ध बनाने में सक्षम बनाया जाता है। इसका मतलब है कि एक बड़ा उपभोक्ता ट्रांसमिशन की अतिरिक्त लागत वहन करके, किसी भी डिस्कॉम से सबसे सस्ती उपलब्ध बिजली खरीद सकता है। यह प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने और बिजली आपूर्ति में निजी खिलाड़ियों द्वारा निवेश को प्रोत्साहित करने के नाम पर किया गया था।
एक निश्चित अवधि के लिए, टैरिफ को विनियमित और निश्चित किया जाता है, लेकिन बड़े उपभोक्ता को बनाए रखने के लिए DISCOM को काउंटर-ऑफर की पेशकश करनी होती है। इन अतिरिक्त लागतों को, गैर-ओपन-एक्सेस उपभोक्ताओं को वहन करना होगा, जिनमें से अनेक छोटे उपभोक्ता हैं। कई प्रयासों के बावजूद, ओपन एक्सेस की सफलता बहुत सीमित रही है।
जिसे अक्सर प्रतिस्पर्धा के लाभों के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है, उस मोबाइल सेवा के विपरीत, बिजली एक वायर्ड-प्रणालि है। इसका मतलब यह है कि यदि एक बहुमंजिला निवासियों को चार आपूर्तिकर्ताओं से बिजली मिलती है, तो चार अलग-अलग तार नहीं होंगे। बिजली एक तार से प्रवाहित होगी, जिसका उपयोग सभी आपूर्तिकर्ता करेंगे। यह अलग-अलग मीटर के माध्यम से है कि विभिन्न आपूर्तिकर्ताओं से बिजली प्रवाह प्रवाहित होगा।
विद्युत मंत्रालय ने निर्णय लिया है कि वितरण में संकट को दूर करने और निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए, व्यापक मीटरिंग आवश्यक है। विद्युत मंत्रालय द्वारा निर्धारित लक्ष्य 2026 तक 2500 लाख स्मार्ट मीटर स्थापित करना है। एक स्मार्ट मीटर की लागत लगभग 6000 रु. प्रति मीटर और निवेश 1.5 लाख करोड़ रुपये। यह मानते हुए कि हर साल 1% से 2% की बिजली वितरण (transmission losses) नुक्सान में कमी होगी, स्मार्ट मीटर की लागत की भरपाई के लिए 18.6 वर्ष लगेंगे। इस समय के दौरान स्मार्ट मीटर की तकनीक बदल जाएगी जिसके लिए री-मीटरिंग की आवश्यकता होगी। यूनाइटेड किंगडम का अनुभव यह है कि 75 किलोवाट से कम की बिजली सप्लाई में, प्रतिस्पर्धा, लागत-प्रभावी (कास्ट-इफेक्टिव) नहीं है।
सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या प्रतिस्पर्धा हो सकती है जब उपभोक्ताओं के एक बड़े हिस्से को सेवा देने के लिए लागत से कम दाम पर सेवा देनी पड़े? उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र के लिए बिजली की आपूर्ति का मुद्दा लें। खेतों को मुफ्त बिजली देना कोई राजनीतिक मजबूरी नहीं है, बल्कि आर्थिक-तर्क पर आधारित है। किसान की जरूरत पानी है, बिजली नहीं। किसान को पानी दो तरह से मिलता है – सिंचाई नहर से या भूजल से। क्या दो प्रणालियों के तहत पानी की अंतर लागत को बनाए रखना संभव है? 1965 में, डॉ. के.एल. राव, पूर्व केंद्रीय सिंचाई और बिजली मंत्री ने लिखा, “किसान से बिजली की पूरी लागत का भुगतान करने की उम्मीद करना अव्यावहारिक है। और यह भी गौर करने के बात है कि नलकूपों को आपूर्ति की जाने वाली बिजली की लागत की गणना कैसे की जाती है? भूमिगत जल से सिंचाई पर सब्सिडी न देने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। आखिरकार, सतही-जल को इतनी अत्यधिक मात्रा में सब्सिडाइज्ड किया जा रहा है।पानी के शुल्क के रूप में जो वसूल किया जाता है, वह निवेश पर ब्याज के आधे या उससे भी कम के बराबर होता है।

निष्कर्ष
क्या जरूरत इस बात की नहीं है कि भारत सरकार राष्ट्र को पहले यह यकीन कराये कि निजीकरण से, सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा और प्रतिस्पर्धा से, घरेलू उपभोक्ता को लाभ होगा।
इस विषय पर एक श्वेत पत्र की मांग होनी चाहिए कि कैसे और क्यों
• बिजली विधेयक 2020, DISCOMS की वित्तीय स्थिति को हल करेगा?
• निजीकरण कार्यक्षमता लाएगा जब कि अभी तक का अनुभव, चाहे यह भारत या और उन्नत देशों का हो, – दोनों में अब तक निजीकरण विफल रहा है?
• बिजली की लागत कम होगी
• निजी-इजारेदार, सार्वजनिक-इजारेदार की तुलना में, अधिक जवाबदेह होगा।
कृषि की तरह, बिजली भी एक बहुत महत्वपूर्ण और मूलभूत जरूरत है। भले ही भारत सरकार, संसद में अपने बहुमत का उपयोग करके, कानून को आगे बढ़ाए, इसका प्रतिरोध निरंतर जारी रहेगा जैसा कि देश ने हाल ही में चार कृषि कानूनों के खिलाफ होता देखा है।

 

 

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