महाराष्ट्र में नई विद्युत पारेषण परियोजनाओं का निजीकरण होने का खतरा

कामगार एकता कमिटी (KEC) संवाददाता की रिपोर्ट

पूरे देश में लाखों बिजली कर्मचारियों के साथ-साथ कई जन संगठनों द्वारा व्यक्त विरोध के बावजूद बिजली के निजीकरण के लिए सरकार द्वारा अथक प्रयास जारी है। महाराष्ट्र के विद्युत नियामक आयोग (ईआरसी) ने एक मसौदा जारी किया है जिसमें कहा गया है कि अब से राज्य में 200 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश वाली कोई भी बिजली पारेषण परियोजना प्रतिस्पर्धी बोली के बाद ही लागू की जाएगी। सबसे कम बोली वाली कंपनी को टेंडर दिया जाएगा। ये दिशा-निर्देश केंद्र सरकार द्वारा जारी नोटिस के अनुसार प्रकाशित किए गए हैं।

पहली नजर में यह उपभोक्ताओं के लिए फायदेमंद लग सकता है। यह दावा किया जाता है कि प्रतिस्पर्धी बोली के कारण, पारेषण परियोजनाओं की लागत लगभग 30% कम हो सकती है और इससे उपभोक्ताओं पर बोझ कम होगा।

हमेशा की तरह यह दावा सिर्फ लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए है। यह कोई रहस्य नहीं है कि निजी कंपनियां कम बोलियां जमा करती हैं, लेकिन फिर किसी न किसी बहाने उपभोक्ताओं से वसूल की जाने वाली दरों में वृद्धि करती हैं। मुंबई शहर के लोगों के अनुभव से पता चलता है कि उत्पादन, पारेषण और वितरण के निजीकरण से बिजली सस्ती नहीं हुई है। इसके विपरीत, मुंबई में उत्पादन और वितरण पर एकाधिकार कर रहे टाटा और अडानी को शहर के निवासी देश में बिजली के लिए सबसे अधिक दरों में से एक का भुगतान कर रहे हैं।

दूसरा बड़ा खतरा यह है कि निजी कंपनियों को महापारेषण (जिसे महाट्रांसको के नाम से भी जाना जाता है) जैसी राज्य ट्रांसमिशन कंपनियों के तहत आने वाले क्षेत्रों में प्रवेश मिल जाएगा, जिससे धीरे-धीरे सार्वजनिक कंपनी की मृत्यु हो जाएगी।

अब तक खारघर-विक्रोली 400 केवी पारेषण परियोजना को प्रतिस्पर्धी बोली की प्रक्रिया के माध्यम से दिया जा चुका है। 7000 करोड़ रुपये की लागत की आरे-कुडस पारेषण परियोजना पिछले साल ही अडानी को बिना प्रतिस्पर्धी बोली के उपहार में दी गई थी, और इसे अन्य निजी कंपनियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।

महाराष्ट्र में 135 पूर्ण या चल रही पारेषण परियोजनाओं में से 26 में 200 करोड़ रुपये से अधिक की लागत शामिल है। यदि नए दिशा-निर्देशों को लागू किया जाता है, तो परियोजनाओं का निजीकरण होने का खतरा होगा। नए दिशानिर्देश और कुछ नहीं बल्कि विद्युत पारेषण खंड के निजीकरण की दिशा में एक अप्रत्यक्ष कदम है। उपभोक्ताओं को इस दावे से मूर्ख नहीं बनना चाहिए कि यह उनके हित में है।

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