श्री संजीव मेहरोत्रा, महामंत्री, बरेली ट्रेड यूनियंस फेडरेशन
देश ने जब तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन देखा, तब यह स्पष्ट हुआ कि लोकतंत्र में जन–आंदोलनों की ताकत किस कदर सरकार को झुकाने में सक्षम होती है। अब कुछ वैसी ही स्थिति श्रमिक और कर्मचारियों के समक्ष आ खड़ी हुई है। चार नई लेबर कोड्स के रूप में, कोरोना काल की आपदा को अवसर में बदलते हुए सरकार ने जिन चार श्रम संहिताओं (Code on Wages, Industrial Relations Code, Occupational Safety, Health and Working Conditions Code, Social Security Code) को बिना व्यापक संवाद के लागू किया। अब वे देश के संगठित–असंगठित दोनों वर्गों के श्रमिकों के अधिकारों को कमजोर करने का माध्यम बनती नजर आ रही हैं।
नई संहिताएं, और क्या है खतरा ?
1. नौकरी की सुरक्षा खतरे में
इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड के तहत अब 300 तक कर्मचारी वाले प्रतिष्ठान बिना सरकार की अनुमति के कर्मचारियों को निकाल सकते हैं। यह फिक्स टर्म एंप्लॉयमेंट और हायर एंड फायर कल्चर को बढ़ावा देगा।
2. यूनियन बनाना हुआ कठिन
यूनियन के पंजीकरण और मान्यता की शर्तें इतनी जटिल कर दी गई हैं कि अब संगठित आवाज बनाना श्रमिकों के लिए बड़ी चुनौती बन जाएगा।
3. सामाजिक सुरक्षा में कटौती की आशंका
सामाजिक सुरक्षा कोड के तहत ईएसआई, पीएफ जैसे कल्याणकारी उपायों की अनिवार्यता में ढील देने की संभावनाएं जताई जा रही हैं, जिससे खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सुरक्षा से वंचित होना पड़ सकता है।
4. धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं को उद्योगों से बाहर
कई सामाजिक और परोपकारी संगठनों को श्रमिक कानूनों की परिधि से बाहर कर दिया गया है, जिससे उन संस्थानों के कर्मचारियों को श्रम अधिकार नहीं मिलेंगे।
5. प्रदर्शन पर भी पहरा
अगर कोई आंदोलन गैरकानूनी घोषित किया गया, तो न केवल उसमें भाग लेने वालों पर, बल्कि समर्थन जताने वाले सामाजिक संगठनों और नेताओं पर भी कार्रवाई संभव होगी। यह लोकतांत्रिक अधिकारों पर सीधा हमला है।
छोटे उद्योगों के लिए भी मुश्किलें
संहिताओं को लेकर यह भी आलोचना है कि ये जहां श्रमिकों के लिए नुकसानदायक हैं, वहीं छोटे व्यापारियों व लघु उद्योगों पर अनुपालन का बोझ भी बढ़ाती हैं। जिससे वे या तो इन कानूनों से बचने की कोशिश करेंगे या फिर श्रमिकों का शोषण करने पर मजबूर होंगे।
हड़तालें, विरोध और मांगें
देशभर की लगभग सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों (भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर) इन कोड्स के खिलाफ लामबंद हैं। 20 मई को प्रस्तावित देशव्यापी हड़ताल को फिलहाल 9 जुलाई तक के लिए स्थगित किया गया है, ताकि केंद्र सरकार को पुनर्विचार का समय दिया जा सके। हाल ही में प्रकाशित बिज़नेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देशित किया है कि वे अपने मौजूदा श्रम कानूनों को नई संहिताओं के अनुरूप संशोधित करें। इसका सीधा अर्थ है कि सरकार इस पर पीछे हटने के मूड में नहीं है।
क्या सरकार फिर झुकेगी?
जैसे किसानों की लामबंदी ने कृषि कानूनों को रद्द करवाया, वैसे ही क्या श्रमिकों की एकजुटता सरकार को श्रम संहिताएं वापस लेने को मजबूर कर पाएगी? यह भविष्य के आंदोलनों और जनदबाव पर निर्भर करता है। इन संहिताओं के बहाने अगर सुधार की आड़ में अधिकार छीने जा रहे हैं, तो यह श्रमिकों के हितों पर एक बड़ा कुठाराघात है। लोकतंत्र में सुधार का अर्थ संवाद और सहमति से होता है, न कि बलपूर्वक थोपे गए विधानों से। समय की मांग है कि सरकार इन संहिताओं को वापस लेकर सभी संबंधित पक्षों, श्रमिक संगठनों, उद्योगों और विशेषज्ञों के साथ खुली चर्चा करे। सुधार तब ही सार्थक होंगे जब वे सबके हित में हों।