BSNL संघर्ष से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के सभी श्रमिकों के लिए सबक: BSNL और MTNL तथा इसके कर्मचारियों के हितों की रक्षा करें (भाग 2)

9 सितंबर, 2024 को ऑल इंडिया फोरम अगेंस्ट प्राइवेटाइजेशन (AIFAP) द्वारा उपरोक्त विषय पर आयोजित बैठक पर कामगार एकता कमिटी (KEC) संवाददाता की रिपोर्ट


1991 में कांग्रेस सरकार द्वारा उदारीकरण और निजीकरण के माध्यम से वैश्वीकरण की नीति अपनाए जाने के बाद से, केंद्र और राज्य स्तर पर सभी सरकारों ने इसे लागू करने की पूरी कोशिश की है।

मॉडर्न फूड्स के मामले में प्रत्यक्ष बिक्री को मज़दूरों की एकजुट लड़ाई के कारण कई बाधाओं का सामना करना पड़ा। उसके बाद एकाधिकारवादियों के नेतृत्व में शासक पूंजीपति वर्ग के इशारे पर विभिन्न सरकारों द्वारा विभिन्न हथकंडे अपनाए गए।

कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को छोटे विभागों, प्रभागों या यहाँ तक कि स्वतंत्र निगमों में विभाजित कर दिया गया है, जैसे कि भारतीय रेलवे के मामले में किया गया। लगभग सभी राज्यों में राज्य बिजली उत्पादन कंपनियों को उत्पादन, पारेषण और वितरण कंपनियों में विभाजित कर दिया गया है। कुछ राज्यों में जैसे हिमाचल प्रदेश और केरल में, मज़दूरों ने अपनी दृढ़ लड़ाई से इस कदम को विफल कर दिया है। लेकिन बंदरगाहों और गोदियों, राज्य परिवहन, रक्षा आदि जैसे कई मामलों में सरकारों ने इन मज़दूर विरोधी कदमों को सफलतापूर्वक लागू किया है।

कई मामलों में विभिन्न सेवाओं का निजीकरण या आउटसोर्सिंग किया गया है। भारतीय रेल में खानपान सेवाएं, टिकटिंग सेवाएं, टिकट चेकिंग, स्पेयर पार्ट्स की आउटसोर्सिंग आदि के उदाहरण हैं। बिजली क्षेत्र में बिल संग्रह को आउटसोर्स किया गया है; केबल और खंभे लगाने के लिए ठेकेदार हैं। दूरसंचार क्षेत्र में, खराबी की मरम्मत, नए ऑप्टिकल फाइबर बिछाने आदि इस श्रेणी में आते हैं।

सभी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में कार्यबल का संविदाकरण हो रहा है।

सभी क्षेत्रों में स्थायी कर्मचारियों की भर्ती पर या तो रोक है या बड़ी पाबंदियां हैं।

ये सभी कदम मज़दूरों की एकता और संघर्ष की शक्ति को तोड़ते हैं। अनुबंध पर काम करने वाले मज़दूरों को न तो नौकरी की सुरक्षा मिलती है और न ही रोज़गार के लाभ। अक्सर उन्हें ठीक से प्रशिक्षित नहीं किया जाता। इससे अक्सर उनकी और उनकी सेवाओं का इस्तेमाल करने वाले लोगों की जान को ख़तरा होता है। अनुबंध पर काम करने वाले ट्रैक मेंटेनर इसके प्रमुख उदाहरण हैं। सरकार अपने ही कानूनों का उल्लंघन करती है जैसे कम से कम न्यूनतम मज़दूरी देना या स्थायी प्रकृति के काम के लिए अनुबंधित मज़दूरों का इस्तेमाल न करना।

इन कदमों से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की परिचालन लागत कम हो जाती है जिससे वे निजी क्षेत्र के लिए अधिक आकर्षक बन जाते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विस्तार, रखरखाव आदि के लिए पर्याप्त धनराशि उपलब्ध न कराकर तथा निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करने की अनुमति न देकर उन्हें और अधिक अपंग बना दिया जाता है। दूरसंचार और बिजली क्षेत्र में रखरखाव के लिए भी धनराशि में कटौती की गई है, जबकि कोयला क्षेत्र में क्षमता वृद्धि के लिए कोई धनराशि नहीं है।

हम पहले ही देख चुके हैं कि BSNL 4G के मामले में क्या हुआ। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के आधुनिकीकरण का सक्रिय रूप से विरोध कर रही है। दूरसंचार क्षेत्र में, BSNL को कई वर्षों तक 4G की अनुमति नहीं दी गई थी। भारतीय रेलवे चेन्नई में इंटीग्रल कोच फैक्ट्री की अपनी विनिर्माण सुविधा को वंदे भारत ट्रेनों के निर्माण की अनुमति नहीं दे रही है, बल्कि इसे निजी कंपनियों को दे रही है।

इन कदमों से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम निजी क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते, जिससे निजी क्षेत्रों का मुनाफा बढ़ता है। साथ ही, इनसे सेवाओं के उपयोगकर्ताओं के मन में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के बारे में एक खराब छवि बनती है, जिससे वे निजीकरण के लिए अपना समर्थन जताते हैं।

ऐसे कई उदाहरण हैं जब सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम को उसकी लागत के बहुत कम मूल्य पर निजी एकाधिकारियों को बेचा गया है। सबसे ताजा उदाहरण एयर इंडिया का है। इसके विमानों की कीमत एक लाख करोड़ रुपये से अधिक थी, जबकि इसे टाटा को केवल 20,000 करोड़ रुपये में बेचा गया!

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम और सार्वजनिक सेवाएं लाभ के लिए नहीं चलाई जा सकतीं!

ऊपर बताए गए कई कदम यह सुनिश्चित करते हैं कि कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम घाटे में चले जाएं। एयर इंडिया को सरकार ने जानबूझकर बर्बाद कर दिया और ज़रूरत से ज़्यादा विमान खरीदकर उसे “घाटे में चलने वाला” बना दिया, जैसे कि निजी क्षेत्र के लिए छोड़े गए मुनाफ़े वाले मार्गों पर उड़ान भरने से रोकना, जबकि एयर इंडिया घाटे में चलने वाले मार्गों पर उड़ान भरना जारी रखता है, आदि। जबकि यह बात लोगों की नज़रों से यथासंभव छिपी हुई है, लगातार यह प्रचार किया जा रहा है कि हर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम का उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना होना चाहिए। हमें इसे चुनौती देनी होगी!

हमें लोगों को यह समझाने की ज़रूरत है कि लोगों को सेवा प्रदान करने के पीछे कभी भी मुनाफ़ा कमाना मकसद नहीं होना चाहिए। सरकार को सभी लोगों से कर वसूलने का अधिकार है। बेहतर वेतन पाने वाले लोग आयकर देते हैं, लेकिन बिना किसी अपवाद के सभी लोग GST जैसे अप्रत्यक्ष करों का भुगतान करते हैं। अप्रत्यक्ष कर सरकार द्वारा एकत्र की जाने वाली राशि का एक बड़ा हिस्सा है।

कर एकत्र करने के अधिकार के साथ-साथ लोगों के कल्याण की देखभाल करना भी सरकार का कर्तव्य है। सभी लोगों को उचित मूल्य पर रोटी, कपड़ा, मकान, पानी, स्वास्थ्य सेवा, परिवहन, बिजली, दूरसंचार, शिक्षा, दवाइयाँ आदि जैसी अच्छी गुणवत्ता की सभी आवश्यक आवश्यकताएँ उपलब्ध कराना सरकार की सबसे बुनियादी जिम्मेदारियों में से एक है और जो सरकार उन्हें प्रदान नहीं कर सकती, वह शासन करने में सक्षम नहीं है।

ऐसी सेवाएं प्रदान करने के लिए जो भी आवश्यक है जैसे कोयला, इस्पात, अन्य धातुएं, खनिज और कच्चा माल आदि, उसकी उपलब्धता भी सरकारों द्वारा सुनिश्चित की जानी चाहिए।

हमारे देश में प्रचलित पूंजीवादी व्यवस्था के तहत, कर का बोझ मुख्य रूप से जनता पर ही पड़ता है, लेकिन पूंजीपति कई तरीकों से बच निकलते हैं, और पूंजीपति जितना बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक कर से (कानूनी और अवैध दोनों तरह से) बच निकलता है। इसके अलावा, उन्हें सब्सिडी, कर लाभ और यहां तक कि ऋण माफ़ी भी प्रदान की जाती है। लोगों को बहुप्रचारित सरकारी योजनाओं के माध्यम से सचमुच बहुत कम राशि मिलती है।

अतः हमारे सामने यह परिदृश्य है कि पूंजीपतियों को लाभ मिल रहा है, जबकि लोगों को अधिकाधिक भुगतान करना पड़ रहा है!

यह सब शासक वर्ग की योजना का हिस्सा है!

यह समझने के लिए कि निजीकरण का न केवल प्रयास किया गया बल्कि हर सरकार ने इसे बढ़ावा क्यों दिया, हमें बॉम्बे प्लान पर वापस जाना होगा। यह योजना भारत के बड़े पूंजीपतियों और बड़े व्यापारियों द्वारा 1944-45 में तैयार की गई थी। उन्हें यकीन था कि द्वितीय विश्व युद्ध से कमज़ोर हुए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भारत पर अपनी पकड़ छोड़नी पड़ेगी। वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि भारत में सत्ता उन्हीं के हाथ में रहे और आज़ाद भारत उनके मनचाहे रास्ते पर चले। उन्होंने बॉम्बे प्लान का मसौदा तैयार किया।

उनके पास पर्याप्त पूंजी नहीं थी, लेकिन उन्हें भारत में अपना खुद का औद्योगिक साम्राज्य बनाने के लिए बिजली, परिवहन, इस्पात और अन्य खनिज, शिक्षित श्रमिकों आदि की आवश्यकता थी। सार्वजनिक क्षेत्र ने सार्वजनिक धन से बुनियादी ढांचा प्रदान किया। बिजली उत्पादन, परिवहन, कोयला, खनन, शिक्षा, इस्पात और अन्य धातुओं के लिए संयंत्र लोगों के पैसे से बनाए गए थे, जिन्हें सरकार ने करों के माध्यम से एकत्र किया था।

बिजली, कोयला, परिवहन आदि सभी सेवाएँ पूँजीवादी उद्योग को रियायती दरों पर दी जाती थीं। इन सुविधाओं से लोगों को कुछ छोटे-मोटे लाभ भी मिलते थे, लेकिन इसका मुख्य उपयोग भारत के पूँजीपति वर्ग को समृद्ध बनाने के लिए किया जाता था।

जब श्री मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, उन्होंने ने बॉम्बे प्लान की तारीफ की और बताया कि साभी पाच वर्षीय योजनाएं उस पर आधारित थीं। केंद्र में सत्ता में मौजूद हर राजनीतिक दल या गठबंधन ने ईमानदारी से उन पदचिह्नों का पालन किया है।

इसी बॉम्बे प्लान में यह रेखांकित किया गया था कि इस प्रकार निर्मित सार्वजनिक क्षेत्र को, जब वह पर्याप्त बड़ा हो जाए, निजी क्षेत्र को कैसे सौंप दिया जाना चाहिए।

1980 के दशक से लेकर 1991-92 में LPG की खुलेआम घोषित नीति के जरिये, पूंजीपतियों की इसी इच्छा को सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है।

निष्कर्ष स्पष्ट है। शुरू से ही हमारा देश सबसे बड़ी पूंजीपतियों की मर्जी के अनुसार चलता आया है और आज भी यही स्थिति है। पूंजीपतियों के शासक वर्ग का नेतृत्व सबसे बड़े पूंजीपति ही करते हैं। यही कारण है कि आज भारत के बड़े पूंजीपति दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से हैं, जबकि यहां की जनता सबसे गरीब लोगों में से है।

क्या किया जाना चाहिए?

निजीकरण लोगों के पैसे की लूट है और यह समाज विरोधी होने के साथ-साथ मज़दूर विरोधी भी है।

हमें पदों, यूनियन और पार्टी संबद्धता, धर्म, जाति आदि की सभी बाधाओं को पार करते हुए एकजुट होने की ज़रूरत है। स्थायी मज़दूरों को अस्थायी और ठेका मज़दूरों के साथ एकजुट होना होगा। संगठित मज़दूरों को असंगठित मज़दूरों के साथ एकजुट होना होगा। हमें निजीकरण के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष में बड़े पैमाने पर लोगों को शामिल करने की ज़रूरत है।

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के स्थायी मज़दूरों को इस संघर्ष में ठेका मज़दूरों के साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है।

निजीकरण के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में हम भाजपा और कांग्रेस जैसी किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी पर भरोसा नहीं कर सकते। उन्हें बड़े पूंजीपतियों द्वारा विशेष रूप से सरकार बनाने पर उनके इरादों को लागू करने के लिए फ़ंड दिया जाता है। चुनाव के बाद सरकारें बदल सकती हैं और बदलती भी हैं, लेकिन शासक वर्ग नहीं बदलता। उसका शासन जारी रहता है। हमें इसी दिशा में बदलाव लाने के लिए काम करना होगा।

विशाखापट्टनम में RINL स्टील का उदाहरण एक शानदार उदाहरण है, जहां मजदूर न केवल मजबूती से एकजुट हुए हैं, बल्कि पूरे शहर और राज्य के लोगों को अपने समर्थन में खड़ा होने के लिए प्रेरित किया है। वे केवल आधे वेतन के बाद भी डटे हुए हैं और संघर्ष दो साल से अधिक समय से जारी है!

सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के खिलाफ लड़ाई पूंजीपति वर्ग के शासन को उखाड़ फेंकने और मजदूरों और किसानों के शासन को स्थापित करने के संघर्ष का एक घटक हिस्सा है। उस संघर्ष में, हम, हमारे देश के सभी मेहनतकश लोग एक तरफ हैं और पूंजीपति वर्ग अपने राजनीतिक दलों के साथ विपरीत दिशा में है। हमें विरोधी पक्ष को अधिक से अधिक अलग-थलग करने की जरूरत है और मेहनतकश लोगों को अधिक से अधिक एकजुट करने की जरूरत है।

 

 

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